Saturday, June 25, 2011

शेरुब्त्से में होली

शेरुब्त्से कॉलेज में, होली का त्यौहार
होती भारत मे दिखी, रंगों की बौछार
रंगों की बौछार, कोई है पीला कोई लाल
मुहं में गुजिया दबी है, हाथों मे गुलाल

पहली होली पर दिखा, गुजिया का आभाव
कॉलेज में टीचिंग करो, या फिर गुजिया खाव
या फिर गुजिया खाव, नहीं भारत है प्यारो
जिसको देखो भरो, और पिचकारी मारो

होली पर दुश्मन लगे, मित्रों से भी मित्र
मित्रों के चेहरे लगे, हमें बडे बिचित्र
हमें बडे बिचित्र, गले से हाथ मिलाएं
होली पर तो तनिक, मित्र यों ना शर्मायें

भिन्न रंग तो क्या हुआ, भिन्न-भिन्न प्रदेश
भिन्न भेष तो क्या हुआ, भिन्न-भिन्न हर देश
भिन्न चर्म तो क्या हुआ, भिन्न-भिन्न है मर्म
भिन्न वस्त्र तो क्या हुआ, भिन्न-भिन्न है धर्म
भिन्न-भिन्न है धर्म, मगर है एक धर्म ही शेष
सब धर्मों मे एक है, मानव धर्मं विशेष

भारतियों की संस्कृति, रंगों की झोली
जितना उसमें डालिए, उतनी कम बोली
जाने पर आता हमे, कब आये होली
हमको लगता दोस्तों, होनी थी हो ली...

(27 Sept 1994 - Room No 26, Exam Duty, 11 AM, Sherubtse College, Kanglung, Bhutan)

पंद्रह अगस्त

पंद्रह अगस्त

परतंत्रता के जाल में
असहाय पक्षी के समान
पंखों को थे हम फड़फड़ा
इक बंद पुर्जे के समान

सोचते थे हम यह कब
टूटेगा जाल पक्षियों का
ओर कब होगा समापन
विदेश के इन भक्षियों का

सोंचते थे वह समय भी
अब बहुत करीब है
अब तो हम कहते हैं यह
कि देश यह गरीब है

और भी आकांक्षाएं
थीं हमारे मस्तिष्क में
छोड़ के इस जाल को
हम उड़ चलें अन्तरिक्ष में

वह भी दिन आया जवानों
जब देश था यह बड़ा मस्त
याद होगा आपको भी
दिन था वो पंद्रह अगस्त.

विजय कुमार श्रोत्रिय,
(Subhash Nagar, Bareilly, 1984)