Friday, December 28, 2012

शब्द

शब्द दान है शब्द मान है 
शब्द भागवत शब्द कुरान है 

शब्द सवेरा शब्द सांझ है
शब्द रोशनी शब्द चाँद है

शब्द जीत है शब्द हार है
शब्द आर है शब्द पार है

शब्द पीर है शब्द नीर है
शब्द शाश्वत शब्द नीड़ है

शब्द शक्ति है शब्द बाण है 
शब्द ब्रह्म है शब्द प्राण है 

Saturday, December 22, 2012

कौन हूँ मैं

मै वैसा नहीं हूँ
जैसा मेरी माँ सोचती है
जैसा मेरी बेटी सोचती है

माँ मुझे समझती है
एक पुत्र
वही पुत्र
जिसको उसने पाला-पोशा
मेरी पत्नी
मुझे मात्र एक पति
समझती है
मेरी बेटी
के लिए
मैं एक पिता के सिवा
कुछ नहीं

मैं स्वयं को
एक पुत्र से अधिक
एक पति से अधिक
एक पिता सोचता हूँ
अवश्य मैं
एक पुत्र हूँ
पिता हूँ
पति हूँ

मैं बना रहना चाहता हूँ
एक इंसान
एक मित्र
एक साथी
बस और कुछ नहीं
पुत्र, पिता व पति भी नहीं। 

Friday, December 21, 2012

चूना लगना जारी है – नेहू में बीसवां दीक्षांत समारोह २०१२

है दीक्षांत समीप आ रहा परिसर हुआ भिखारी है
काला कौआ बोल उड़ा चूना लगने की बारी है

खरपतवार बढ़े खंबे से खुश होता अधिकारी है
खिली-खिली आँखें हैं उसकी अब चांदी ही चांदी है
काला कौआ बोल उड़ा चूना लगने की बारी है

सड़क झेलती वजन शून्य का पाकेट कितनी भारी है
बोतल रैपर सिगरेट माचिस बीस लाख की गाड़ी है
काला कौआ बोल उड़ा चूना लगने की बारी है

बालू मिट्टी गिट्टी ठेका लेन-देन की बारी है
मजबूरी मजदूरी करती कामकाज सरकारी है
काला कौआ बोल उड़ा चूना लगने की बारी है

दूना खर्चा कभी न चर्चा मोलभाव बीमारी है
नेता क्रेता बोल चुके हैं सीएजी बीमारी है
काला कौआ बोल उड़ा चूना लगना तो जारी है

जल आकाश हवा ने भी तो कर ली इनसे यारी है
बड़ी-बड़ी मोटी फाइल में लीपा-पोती जारी है
काला कौआ बोल उड़ा चूना लगना तो जारी है

मैना गौरैया बुलबुल चुप ये इनकी लाचारी है
सीधा साफ़ सरल सम्प्रेषण खतरा कितना भारी है
सबकी बांछे खिली हुई हैं कुछ कहना मक्कारी है

सबका नेहू सबकी रोटी इसकी लाज हमारी है
हरी घास है हरी पत्तियाँ इक ही अर्ज़ हमारी है
पिले रहेंगे खिले रहेंगे चुप रहना बीमारी है

काला कौआ बोल उड़ा चूना लगना तो जारी है
सबकी बांछे खिली हुई हैं कुछ कहना मक्कारी है
है दीक्षांत समीप आ रहा परिसर हुआ भिखारी है

Thursday, December 13, 2012

जंगल में मनुष्य

देखे
कुछ मनुष्य
जानवरों के शहर में

मदमस्त हाथी
भौंकते कुत्ते  
दहाड़ते शेर
गुर्राते भालू

गर्भवती बकरी
रंग बदलते गिरगिट
रंभाती गाय
हिनहिनाते घोड़े
मिमियाती बिल्लियाँ

टरटराते मेंढक
रेंगते कछुए
फुफकारते सांप

भिनभिनाती मधुमक्खियाँ
कावं-कावं करते कौए
गुटरगूं करते कबूतर
चिंचिहाती चिड़ियाँ

'जब आती है मौत
गीदड़ की
तो भागता है
शहर की ओर'

निहारते गीदड़
भीगी बिल्ली
खूनी शेर
एक सन्नाटा
शांति का शोर

देखे
कुछ मनुष्य
जानवरों के शहर में
इस गाँव के मध्य
मेघों के घर में
या
इस शहरनुमा गावं में

जंगल में
क्यों घुस आयें हैं
कुछ मनुष्य
जानवरों के भेष में।


(18 Oct  2011 सुबह, जब मैं व मेरी पत्नी  टहल रहे थे, विश्वविद्यालय के एक  वरिष्ठ अध्यापक ने मुझसे हंसते हुए पूंछा 'आपने किसी मनुष्य को देखा टहलते हुए', उनका  इशारा उनके अन्य साथियों से था जिन्हें वो खोज रहे थे।  उनका यह वाक्य इस कविता का प्रेरणा-स्रोत बना। धन्यवाद प्रोफेसर शुक्ला)

Friday, December 7, 2012

मैं इतना सोच सकता हूँ - 10

51

मैं अंधों को दिखाकर रास्ता संतुष्ट होता हूँ
मगर इन स्वस्थ आँखों की व्यथा पर रुष्ट होता हूँ
नहीं उपलब्ध साधन साध्य फिर भी व्योम छूना  है
मैं इतना सोच सकता हूँ नहीं संतुष्ट होता हूँ

52

मैं अक्सर रात को उठ बैठकर सपने सुलाता हूँ
भरी आँखों से सारी स्रष्टि की रचना भुलाता हूँ
मेरी हर थपथपाहट पर वो सपना मुस्कराता है
मैं इतना सोच सकता हूँ मैं अपना कल सजाता हूँ

53

मैं अँधा हो चुका हूँ देखकर अंधी हुई दुनिया
मेरी आंखें भी ढूँढें हैं कोई क्रेता कोई बनिया
नयी सी रौशनी लेकर कोई बालक बुलाता है
मैं इतना सोच सकता हूँ मेरे कंधे तेरी दुनिया


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