Friday, April 19, 2019

पानी, मिट्टी और पत्थर

बारिश से पानी
पानी से जीवन
मिट्टी और पत्थर
बारिश की बूंदे
पत्थर की चमक
मिट्टी का भोजन
मिट्टी से पत्थर
पत्थर से मिटटी

हम
मिट्टी या पत्थर?

गांव और शहर
मिट्टी और पत्थर
गांव से शहर,
मिट्टी से पत्थर

बारिश का पानी
पत्थर से टक्कर
पत्थर से मिटटी

गाँव, शहर और पत्थर-वन

मिट्टी-पानी का खेल
उनकी घनिष्टता
का
प्रकार व विकार

समावेशी है
मिट्टी का स्वभाव
उसकी शक्ति है
उसकी लोच
शक्ति का
दुरूपयोग
कभी-कभी  

समय, काल व परिस्थिति
मिट्टी व पत्थर का संबंध
व समीकरण

गांव
बन रहे हैं
शहर
और शहर
वैश्विक गांव

गतिमान है
कालचक्र - कर्मचक्र
गति-सीमा से परे

क्या है दिल्ली
गांव अथवा शहर
मिट्टी अथवा पत्थर

-विजय कुमार श्रोत्रियः
[20:11, 11 अप्रैल, 2018]

Saturday, April 6, 2019

मंज़िलें उनको मिलीं जो दौड़ में शामिल न थे - पार्ट 2

24 मार्च 2019 को मैंने इसी शीर्षक से एक कविता पोस्ट की थी, एक मित्र ने अपनी टिप्पणी में यह तीन पंक्तियाँ प्रेषित कीं :  
तृप्त सरिता बह रही थी जल तरंगों को लिए
दर किनारा कर किनारे दूर तक साहिल पे थे
मंज़िलें उनको मिलीं जो दौड़ में शामिल न थे

उपरोक्त पंक्तियों को आगे बढ़ाते हुए एक नई कविता की रचना हो गई -

तृप्त सरिता बह रही थी जल तरंगों को लिए
दर किनारा कर किनारे दूर तक साहिल पे थे
मंज़िलें उनको मिलीं जो दौड़ में शामिल न थे

नव किरण का तेज अपने में दिशा का ज्ञान ले
दे रहा था रोशनी सम्बन्ध कुछ शामिल न थे
मंज़िलें उनको मिलीं जो दौड़ में शामिल न थे

कुछ किताबी ज्ञान साझा कर सफलता के शिखर
पा कहां पाया कोई जब तक अथक काबिल न थे
मंज़िलें उनको मिलीं जो दौड़ में शामिल न थे

ढल रहा था सूर्य अपनी रोशनी को बांटकर
आंधियों के हौसले अवरोध के काबिल न थे
मंज़िलें उनको मिलीं जो दौड़ में शामिल न थे

यदि कदम को लडख़ड़ाने से बचा पाओ तो तुम
पा गए सब कुछ सकल जो स्वप्न में हासिल न थे
मंज़िलें उनको मिलीं जो दौड़ में शामिल न थे


[31 मार्च 2019, अजमेर दिल्ली शताब्दी एक्सप्रेस 7:30 शाम]

Thursday, April 4, 2019

मंज़िलें उनको मिलीं जो दौड़ में शामिल न थे - पार्ट 2

24 मार्च 2019 को मैंने इसी शीर्षक से एक कविता पोस्ट की थी, एक मित्र ने अपनी टिप्पणी में यह तीन पंक्तियाँ प्रेषित कीं :
तृप्त सरिता बह रही थी जल तरंगों को लिए
दर किनारा कर किनारे दूर तक साहिल पे थे
मंज़िलें उनको मिलीं जो दौड़ में शामिल न थे

उपरोक्त पंक्तियों को आगे बढ़ाते हुए एक नई कविता की रचना हो गई -

तृप्त सरिता बह रही थी जल तरंगों को लिए
दर किनारा कर किनारे दूर तक साहिल पे थे
मंज़िलें उनको मिलीं जो दौड़ में शामिल न थे

नव किरण का तेज अपने में दिशा का ज्ञान ले
दे रहा था रोशनी सम्बन्ध कुछ शामिल न थे
मंज़िलें उनको मिलीं जो दौड़ में शामिल न थे

कुछ किताबी ज्ञान साझा कर सफलता के शिखर
पा कहां पाया कोई जब तक अथक काबिल न थे
मंज़िलें उनको मिलीं जो दौड़ में शामिल न थे

ढल रहा था सूर्य अपनी रोशनी को बांटकर
आंधियों के हौसले अवरोध के काबिल न थे
मंज़िलें उनको मिलीं जो दौड़ में शामिल न थे

यदि कदम को लडख़ड़ाने से बचा पाओ तो तुम
पा गए सब कुछ सकल जो स्वप्न में हासिल न थे
मंज़िलें उनको मिलीं जो दौड़ में शामिल न थे


[31 मार्च 2019, अजमेर दिल्ली शताब्दी एक्सप्रेस 7:30 शाम]