Sunday, September 11, 2016

आ जाओ


[चित्र प्रो0 विद्यानंद झा जी की फेसबुक वाल से साभार]

सब छोड़ देते हैं साथ
अपने भी

फिर भी 
लोगों की नज़र 
पड़ ही जाती है

पराये-अपने के भेद से परे

कितनी ख़ूबसूरत थी 
ये दुनिया 
जब तुम्हारा साथ था

हम दोनों कितनो का 
सहारा थे
बरसात में
कड़ी धूप में

अब क्या है 
मेरा अस्तित्व 
तुम्हारे बिना

और तुम्हारा 
मेरे बिना

तुम अब 
उड़ रही होगी 
बिना किसी की
मुट्ठी में बंधे 

आ जाओ

 मैं कष्ट में हूँ
तुम्हारे साथ न होने पर
मुझे ठोकरें पड़ रही हैं
हाथ से सीधे पैरों में आ गिरी हूँ
मुझे अब
ज्ञात हो रहा है
तुम्हारे साथ का महत्व


आ जाओ 
चलो 
फिर से हम खा लेते है 
कसमें साथ मरने-जीने की

आ जाओ


मेरी वेदना पर
कुछ तो तरस खाओ

आ जाओ

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Wednesday, July 27, 2016

कोई वीरानी सी वीरानी है



[प्रो0 विद्यानंद झा जी द्वारा उनके फेसबुक पेज पर इस चित्र को देखकर मिली प्रेरणा]

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कोई वीरानी सी वीरानी है
उनको अपनी व्यथा सुनानी है 
उड़ गए साथ छोड़ सब फिर भी 
मुझमे बाकी अभी कहानी है 

मौसमों की अजीब आदत है 
बसन्त के बाद शीत आनी है 
सूखना अंत हो नहीं सकता 
कोपलों में अभी भी पानी है 

ऐसी वीरानी भी जरुरी है 
असलियत है नहीं बेमानी है 
अँधेरा-रोशनी रहें मिलजुलकर 
जिन्दगी की यही कहानी है 

मेरा जीवन तो एक मिथ्या है 
सत्य है मृत्यु जोकि आनी है 
भागते दौड़ते रहें हम सब 
पतंग सपनों की जो उड़ानी है 

कोई वीरानी सी वीरानी है 
मुझमे बाकी अभी कहानी है

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Tuesday, April 26, 2016

तीस्ता

तीस्ता के सहारे
चले जा रहे हैं,
दायें-बाहें, ऊँचे-नीचे,
पहाड़ों पर।

















तीस्ता नहीं छोड़ती है साथ,
अपनी गति, गन्तव्य व गहनता को
पोटली में बांधे
समय, काल व परिस्थिति के साथ
करते समझौता,
मानव छेड़खानी से जूझते,
बांधों से टकराते,
अपना रास्ता स्वयं बनाते,
तीस्ता चली जा रही है।

पत्थरों के साथ लुड़कती,
देश-देशान्तर की
परिकल्पना के विरुद्ध,
तीस्ता चली जा रही है।

कटाव, रिसाव, व झुकाव से
जन्म लेते विकास की गति को
अपने कन्धों पर ढोते
तीस्ता चली जा रही है।

सड़क के चौड़ा होने से
अवरुद्ध अवश्य होती है
उसकी गति,
परंतु
अपने सेवा भाव में सराबोर
उसका व्यक्तित्व
सब कुछ सहने को
तैयार दीखता है,
परंतु कब तक।

कब तक,
आखिर कब तक
हम अपने हितों के लिए
उसकी गति को
अवरुद्ध करते रहेंगे,
बनाते रहेंगे
बाँध व सड़कें,
चकाचौंध करने वाली
रोशनी के लिए।













कब तक,
आखिर कब तक
अल्पकालिक रोशनी के लिए 
संजोते रहेंगे
दीर्घकालिक अँधेरे को।
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[सिलीगुड़ी से गंगटोक के रास्ते पर तीस्ता के भिन्न रूपों को देख कर निकली यह पंक्तियाँ, 26 अप्रैल 2016, Mayfair hotel n resort, Gangtok, 6:50 pm, room #523]

Saturday, April 2, 2016

फूल


[प्रो0 विद्यानंद झा जी द्वारा उनके फेसबुक पेज पर इस चित्र को देखकर मिली प्रेरणा]
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देखो
ध्यान से देखो
किस प्रकार तुमने 
टुकड़े कर दिए
हमारे परिवार के

हमारी शोभा हमारे अलग रहने में भी है 

हममे 
अभी भी सुगंध का वास है
अभी भी 
हम सक्षम हैं 
तुम्हारा ध्यानाकर्षण करने में 

तुमने 
हमारा त्याग तो किया
परंतु भूल गए 
कि हमारा जीवन 
त्याग से ही प्रारम्भ होता है
हम अपने लिए कभी नहीं जीते 
समर्पण ही तो हमारा जीवन है 

हम मंदिर की शोभा का कारण भी हैं
और 
अंतिम यात्रा में तुम्हारे सहयात्री भी

देखो
हमको 
इन चार कन्धों पर 
जा रहे निर्जीव पथिक के ऊपर 
समर्पित किया गया 
हम अपनी यात्रा को विराम नहीं देना चाहते थे  
सो हमने ज़मीन पर रहना 
बेहतर समझा

सड़क पर हमें 
कुचले जाने का भय तो है
परंतु अपने परिवार से 
जुड़ने का अवसर भी तो 
यहीं है

हम कब तक 
  रह सकते हैं दूर काँटों से

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Monday, March 7, 2016

चप्पलें

[प्रो0 विद्यानंद झा जी द्वारा उनके फेसबुक पेज पर इस चित्र को देखकर मिली प्रेरणा]
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कहाँ चले गए हो तुम
हमें छोड़कर अकेला
इन सूखे पत्तों के बीच 
हम दोनों एक दूसरे से बात कर तो रहे हैं
परन्तु
तुम्हारे बिना हम अधूरे हैं
अधूरा है
हमारा अस्तित्व
तुमसे ही तो है
हमारा जीवन
तुम्हीने तो हमें दी है दिशा

मोमबत्ती की भांति
हम जल रहे हैं
घिस रहे हैं 
परन्तु फिर भी
हममे तुम्हे मंजिल पर पहुँचाने की
क्षमता है
साहस है

तुम्हे हमारी क्षमता पर
विश्वास नहीं है क्या
या तुम
परिवर्तन की इस लहर में बह रहे हो
क्या तुम पर बाज़ार हावी हो रहा है
ओर तुम तलाश में निकल गए हो
विकल्पों की

विश्वास करो 
हममे तुम्हे मंजिल पर पहुँचाने की
क्षमता व साहस दोनों है
हाँ बाज़ार से लड़ने की क्षमता
अवश्य क्षीण हो गयी है अब

यों तो हम पर तुम्हारा पूरा बजन है
लेकिन हम फिर भी थके नहीं हैं
हमारा अस्तित्व 
इसी से तो है
तुम्हे किसी भी प्रकार की आत्मग्लानि
करने की कोई आव्यश्यकता नहीं है

हमारे जीवन का लक्ष्य भी तो यही है
सबकुछ सहकर तुमको दिशा देना
एक ममतामयी माँ की भांति

क्या तुम
पास के तालाब में
अपनी प्यास बुझाने चले गए हो
हमारी प्यास की चिंता किये बिना
जैसा अक्सर बच्चे किया करते हैं
अपने मातापिता की वृद्धावस्था में  

हमको कोई भी शिकायत नहीं है तुमसे
आजाओ

अभी
अभी-अभी 
इस वृक्ष से गिरे
एक पत्ते से
तुम्हारे स्पर्श की
खुशबू आ रही है
लगता है 
तुम अपनी भूख मिटा रहे हो 
इस वृक्ष पर ही

फिर क्यों
तुम्हारे पास होने का एहसास
हमें नहीं हो रहा है

इस पत्ते को
नहीं पता है हमारे-तुम्हारे
रिश्ते की घनिष्टता
के बारे में
वह तुम्हारे स्पर्श से उत्पन्न
स्फूर्ति का वर्णन
बड़ी आतुरता के साथ कर रहा है
अपने मित्रों से

यदि तुम्हारी भूख-प्यास मिट गई हो
तो आजाओ
अभी बहुत दूर तक चलना है हमको
साथ-साथ
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Monday, February 22, 2016

लेखनी

क्यों,
आखिर क्यों,
तुम मुझसे बना रही हो दूरी,
उड़ती जा रही हो व्योम पार,
चली जा रही हो,
नदी के उस छोर पार,
(तुम भलीभांति जानती हो,
मुझे तैरना नहीं आता),

क्यों,
आखिर क्यों,
होती जा रही हो पत्थर,
शीत ने तुम्हारी स्याही भी जमा दी है,
(ग्रीष्म तुमको तरल भी नहीं कर पायेगी),
तुम चल भी नहीं रही हो,
फिर भी थकीथकी सी हो,

क्यों,
आखिर क्यों,
तुम हो गई हो,
मेरे स्पर्श से परे।

Monday, February 15, 2016

जड़

ज़मीन ज़रूर उसकी कई एकड़ों में थी,
गिनती भी उसकी वैसे कई हेकड़ों में थी,
जीने का सलीका, न शराफत से दोस्ती,
जो खोट थी वो उसकी हिलती जड़ों में थी।
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Sunday, January 3, 2016

नया वर्ष २०१६

जीवन की भागा-दौड़ी में
कुछ लोग मिले कुछ बिछड़ गए
कुछ अनुभव खट्टे-मीठे से
क्यों लगे ठगे से पिछड़ गए

सपनो की आँख-मिचौनी में
कुछ भूल गए कुछ याद रहा
सिक्कों की आधी-पौनी में
बस आशय पथ ही साथ रहा
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