Saturday, June 25, 2011

पंद्रह अगस्त

पंद्रह अगस्त

परतंत्रता के जाल में
असहाय पक्षी के समान
पंखों को थे हम फड़फड़ा
इक बंद पुर्जे के समान

सोचते थे हम यह कब
टूटेगा जाल पक्षियों का
ओर कब होगा समापन
विदेश के इन भक्षियों का

सोंचते थे वह समय भी
अब बहुत करीब है
अब तो हम कहते हैं यह
कि देश यह गरीब है

और भी आकांक्षाएं
थीं हमारे मस्तिष्क में
छोड़ के इस जाल को
हम उड़ चलें अन्तरिक्ष में

वह भी दिन आया जवानों
जब देश था यह बड़ा मस्त
याद होगा आपको भी
दिन था वो पंद्रह अगस्त.

विजय कुमार श्रोत्रिय,
(Subhash Nagar, Bareilly, 1984)

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