Monday, February 22, 2016

लेखनी

क्यों,
आखिर क्यों,
तुम मुझसे बना रही हो दूरी,
उड़ती जा रही हो व्योम पार,
चली जा रही हो,
नदी के उस छोर पार,
(तुम भलीभांति जानती हो,
मुझे तैरना नहीं आता),

क्यों,
आखिर क्यों,
होती जा रही हो पत्थर,
शीत ने तुम्हारी स्याही भी जमा दी है,
(ग्रीष्म तुमको तरल भी नहीं कर पायेगी),
तुम चल भी नहीं रही हो,
फिर भी थकीथकी सी हो,

क्यों,
आखिर क्यों,
तुम हो गई हो,
मेरे स्पर्श से परे।

Monday, February 15, 2016

जड़

ज़मीन ज़रूर उसकी कई एकड़ों में थी,
गिनती भी उसकी वैसे कई हेकड़ों में थी,
जीने का सलीका, न शराफत से दोस्ती,
जो खोट थी वो उसकी हिलती जड़ों में थी।
==============