Saturday, May 29, 2010

आशय

उनके चुप से नहीं समझना
                वे कुछ बोल नहीं सकते हैं
                बस्ते खोल नहीं सकते हैं

मेरे चुप से नहीं समझना
                मैं कुछ बोल नहीं सकता हूँ
                होठों को खोल नहीं सकता हूँ

इक महिला की खातिर तुमने
सारे नियम तार कर दिए

                इक सदस्य के कह देने से
                छै पर तुमने वार कर दिए

उडिया और गुडिया की सरगम
हम सब झेल नहीं सकते हैं
वे कुछ बोल नहीं सकते हैं
बस्ते खोल नहीं सकते हैं

उनके चुप से नहीं समझना
                वे कुछ बोल नहीं सकते हैं
                बस्ते खोल नहीं सकते हैं

तेरे कन्धों की पीड़ा को
मेरा चश्मा देख रहा है
                तेरे सम्बोधन का आशय
                सबकी आंखें खोल रहा है

चश्मे से वो दिल तक पहुंचे
ऐसा बोल नहीं सकता हूँ
मैं कुछ बोल नहीं सकता हूँ
होठों को खोल नहीं सकता हूँ

मेरे चुप से नहीं समझना
                 मैं कुछ बोल नहीं सकता हूँ
                 होठों को खोल नहीं सकता हूँ

Saturday, May 22, 2010

समय की गति

समय,
गतिशील है,
गतिवान है,
अविराम है,
कुछ कुछ
जीवन की तरह,
परन्तु
जीवन गतिशील होते हुए भी
अविराम नहीं है,
जीवन,
मनुष्य का,
जानवर का,
पक्षी का,
पौधे का,
या ब्रक्ष का,
समान नहीं है,
परन्तु
अविराम भी नहीं है,
कभी ना कभी,
कहीं ना कहीं,
अवश्य होगा,
विराम,
समय से बिछुड़ना ही होगा
जीवन को.

समय,
बहुत स्वार्थी है,
नहीं रखता किसी के साथ,
इतनी घनिष्ठता,
जिसको दे सके
अपनी आयु,
जिसके साथ
रह सके
अविराम रूप से,
उसका कोई प्रतिद्वंदी
भी नहीं है,
वह सर्वशक्तिमान है.

समय,
जन्म देता है,
कई लड़ाइयों को,
समय कि गति से भी तीब्र
गति से,
भागने का प्रयास करता है,
मानव,
जिस प्रकार से,
बढती जाती है
जीवन की गति,
समय का महत्व भी,
बढता जाता है,
समय कि गति समान रहती है,
परन्तु
प्रतीत होता है,
कभी तीब्र - कभी मंद,
यही दर्शन है,
समय का.

कौन रोक सकता है,
समय को,
कौन रोक पायेगा,
यदि किया गया,
कोई प्रयास,
इस आशय का,
बस ठीक उसी समय
युद्ध प्रारंभ हो जायेगा,
विराम व अविराम के मध्य,
अविराम, विराम के जीवन पर
प्रश्नचिन्ह लगाएगा,
और,
उसका साक्षात्कार,
उसके समय से कराएगा,
अंततः
विराम,
विराम हो जायेगा,
एक पूर्ण विराम,
गतिहीन,
ठहरा हुआ,
रुका हुआ,
और
अविराम,
हमेशा की तरह,
बढ जायेगा,
आगे,
प्रतीत होगा,
उसकी गति मंद थी,
उसकी गति तीब्र है,
यह सब
मस्तिष्ट का फेर है,
ना कहीं जल्दी है,
ना देर है,
इसको समझ पाना,
ना कठिन है,
ना आसान है,.
समय गतिशील है,
गतिवान है,
जिसकी गति समान है....
(२६ सितम्बर, १९९९, कक्ष स: १९, ४ बजे संध्या, परीक्षा ड्यूटी, शेरुब्त्से कॉलेज, कंग्लुंग, भूटान)

समय का पहिया

समय का पहिया घूम रहा है
गति सीमा से परे,
गति निर्भर करती है,
परिस्थितियों पर,
कई बार
गति प्रदान करने वाले
व्यक्ति पर भी,
परन्तु,
न्यूनतम व अधिकतम,
गति सीमा से परे,
कठिन है जाना.
जैसे लगता है,
रविवार २४ घंटे का नहीं होता,
बल्कि मध्य में या कभी-कभी,
प्रारम्भ में,
याचना करता है
दशमलव के प्रयोग की,
जबकि कई बार कई दिन
२४ घंटे के स्थान पर
४२ घंटे के प्रतीत होते हैं.
क्षण-घंटे-दिन-सप्ताह-माह व वर्ष,
किस प्रकार गुज़र जाते हैं,
ज्ञात होता है,
गुजरने के बाद.
यदि यह अनुभूति,
प्रारंभ में ही हो जाये,
जानिए,
आधी समस्याओं का समाधान.

आयु व समय
एक दूसरे से साक्षात्कार करते हैं
प्रायः
किस समय, कौन किसका
साक्षात्कार कर रहा है,
बता पाना कठिन है,
यदि कोई इसको समझ सके,
या स्पष्ट रूप से जान सके,
जानिये
आधी समस्याओं का समाधान...

स्वयं की आयु का ज्ञान कब होता है?
जब स्वयं द्वारा पानी दिए पेड़ की
टहनियां लहलाहतीं हैं,
फलों का लालच देकर
पास बुलाती हैं,
तब.

एक शिक्षक द्वारा पडाया गया छात्र
आसीन होता है उसके बराबर के
पद पर
तब.

मोहल्ले में पडोसी का बेटा
जो खेलता था कंचे
आँखों सामने,
अब व्यापार में पिता का
हाथ बटाता प्रतीत होता है
तब.

एक नौजवान दिखने वाले
अभिनेता का पुत्र
उसी अभिनेत्री के साथ
अभिनेता के रूप मे प्रदर्शित होता है
जिसके साथ कभी,
उसके पिता प्रदर्शित होते थे
तब.

इमारतों की मंजिलें
बढती दिखतीं हैं
तब.

सड़क की चौडाई
बढती दिखती है
तब.

रामलाल की बेटी गुडिया
जिसे कभी गोदी में खिलाता था
पुत्रवती होती है
तब.

या फिर तब
जब
माता पिता मे खिलखली
का सिलसिला
कम होता दिखाई देता है.

तब - जब
सुई में धागा डालने के लिए
माँ को चश्मे की

आवश्यकता होती है.

तब - जब
पिता को
चाय में चीनी
व सब्जी में नमक
अधिक लगता है.

तब - जब
डाक्टर अंकल से मेल अधिक
दिखता है
परिवार का.

तब - जब
स्वयं की गतिविधियाँ
दोहराई जाती हैं
स्वयं के बच्चों के द्वारा
स्वयं के शिष्यों के द्वारा.

सचमुच
समय का पहिया घूम रहा है
गति सीमा से परे
जो इस गति सीमा को
ठीक ठीक पड़ ले
जानिए
अधिकतर समस्याओं का समाधान...

(२६ सितम्बर, १९९४, शेरुब्त्से कॉलेज, कान्ग्लुंग, त्राशीगांग, भूटान, exam duty: room no 15 - 9:15 to 10 AM)

Wednesday, May 19, 2010

प्रतीक्षा

प्रतीक्षा,
कबतक, किसकी और क्यों,
कब, कहाँ, कौन,
हटाएगा
लगा प्रश्नचिन्ह
भविष्य के समक्ष.
कब तक लादना होगा
इस शरीर का भार,
स्वयं के कन्धों पर.

कुछ समय के लिए
बनेगीं बैसाखियाँ,
सहारे का पर्याय,
या फिर
सचमुच, क्या यह सत्य है
कि जीवन काटा जा सकता है,
काठ की बनी
बैसाखियों के सहारे.

कुछ समय के लिए
वर्तमान में किये गए कृत्य,
बैसाखियों को भी सहारा दे सकते हैं,
यदि कहीं द्रश्तिपात हो
अनुकूलता का
द्रष्टिकोण -
अनुकूल अथवा प्रतिकूल
भूत का अनुभव,
सिद्ध हो सकते हैं,
कुछ सहायक,
साफ़ करने मे,
भविष्य पर लगा प्रश्नचिंह.
परन्तु शायद
प्रतीक्षा ही
जीवन का अर्थ नहीं है...
(२८ मई, १९९३, हर्मंन माइनर स्कूल, भीमताल, नैनीताल, उत्तरप्रदेश, उत्तरांचल)

किनसे लोग खफा रहते हैं

वो जो कुछ कुछ, चुप रहते हैं
या जो अधिक खरा कहते हैं
उनसे लोग खफा रहते हैं.

पानी बरसे, आंधी आये
नेहरु आये, गाँधी आये
निर्भर नहीं किसी पर हो जो
धारा मे अपनी बहते हैं
उनसे लोग खफा रहते हैं.

शोक हुआ बादल मंडराए
कौए, चील, गिद्ध भी गायें
हर ऋतु के आने जाने का
जो सार्थक अध्ययन करते हैं
उनसे लोग खफा रहते हैं.

सोना उठना, उठना सोना
अश्रु बिना जिनका हो रोना
आंसूं का खारापन पीकर
अपना जो जीना जीते हैं
उनसे लोग खफा रहते हैं.

क्या कहना और किसको कहना
क्यों कहना कैसे चुप रहना
शोर मचा हल्ला करते हैं
उनसे लोग खफा रहते हैं.

जीवन का चलना कपि बनकर
नहीं लिए सबके कर, कर पर
अपना जो जपना कहते हैं
उनसे लोग खफा रहते हैं.

देशभक्ति का पाठ पढाकर
द्वेष भक्ति स्वयं अपनाकर
जन गण मन पर चुप रहते हैं
उनसे लोग खफा रहते हैं...

(१८ सितम्बर,  १९९२, ११:२० बजे सुबह, हर्मंन माइनर स्कूल, भीमताल, नैनीताल, उत्तरप्रदेश, उत्तरांचल)

शब्द या अर्थ

शब्द, वही हैं
मात्र अर्थ बदल रहे हैं
या
अर्थ वही हैं
लेकिन शब्द बदल रहे हैं
लेकिन बदल अवश्य रहे हैं
शब्द या अर्थ...
(२६ अगस्त, १९९२, हर्मंन माइनर स्कूल, भीमताल, नैनीताल, उत्तरप्रदेश, उत्तरांचल)

मेरी दाड़ी

उँगलियों का स्पर्श,
मेरे गालों पर,
मेरे बालों पर
मेरी ... ऊबड़-खाबड़ दाड़ी पर,
कल्पना, स्वप्न, अभिलाषा
या उड़ान,
भींचना होठों का,
या फिर
उंगली के नाखूनों का संघर्ष
हाथ की - कभी स्वयं से, कभी दातों से,
गालों को टिकाना,
सम्पूर्ण हथेली पर,
या फिर
हथेलियों का,
उँगलियों को भींचकर
दोनों हाथों की
सर को सहारा देना,
किसी से बात करते
एक टकी लगा कर देखना
कहीं और
कुछ सूचक मात्र हैं
ये किर्याकलाप
कौन, कब, किससे, किसको, क्यों,
कैसे, कहाँ,
दर्शाते हैं
पथ उड़ान का
साकार करने के लिए
कल्पनाएँ
एक सम्पूर्ण सामंजस्य...
(२६ अगस्त १९९२, १० बजे सुबह, हर्मंन माइनर स्कूल, भीमताल, नैनीताल, उत्तरप्रदेश, उत्तरांचल)

दुल्हन ही दहेज़ है

नहीं चाहिए दुल्हन
यदि दुल्हन ही दहेज़ है
पत्नी
अर्थात दुल्हन
संविदा में
दहेज़ का प्रतिफल है
बिना प्रतिफल
कोई भी संविदा
शून्य है
कुछ अपवादों को छोड़कर
अपवाद ही होंगे
दहेज़ रहित विवाह
या
दुल्हन रहित दहेज़
या फिर
दहेज़ रहित दुल्हन...

(24 August 1992, Hermann Gmeiner School, Bhimtal, Nainital, UP, Uttranchal)

जीवन एक चैक है

जीवन एक चैक है
यदि सार्थक हुआ तो
समाशोधित हुआ मना जाता है
और यदि निरस्त तो
बिना भुगतान
बैंक से वापस आ जाता है.
अब तो सरकार भी बल दे रही है
जीवन के सार्थक होने पर
शायद इसीलिए
अपराध की संज्ञा में
जोड़ दिया गया है
बिना भुगतान बैंक से
वापस आ जाना
किसी चैक का
किसी जीवन का...

(२४ अगस्त, १९९२, हर्मन माइनर स्कूल, भीमताल, नैनीताल, उत्तरप्रदेश, उत्तरांचल)
लिखता हूँ मैं
गाती है मेरी लेखनी
संगीत प्रदान करते हैं
कुछ कागज़ के प्रष्ट
कुछ रचने के लिए
अन्तर्भेद
कविता और गीत...

(24 August 1992, 10 AM, Hermann Gmeiner School, Bhimtal, Nainital, UP, Uttranchal)

संघर्ष

ख़ामोशी
मुझे अब घ्रणा हो गई है
इस शब्द से
जीवन पर्यंत
साथ निभाने के पश्चात्
नियंत्रण -
सीमा के साथ मना रहा है
रंगरेलियां
कब तक सहा जा सकता है
अन्याय
करना ही पड़ेगा संघर्ष

और
लांघना होगा सीमा को
और लाना होगा 
नियंत्रण से छीनकर,
ईश्वर - भाग्य - योग्यता,
कब तक बिताएंगे जीवन
इन असहाह शब्दों के सहारे
नहीं, कोई नहीं
प्राप्त कर पायेगा
कुछ भी
भाग्य से अधिक
नहीं, कभी नहीं
किसी को प्राप्त होगा
कुछ भी
समय से पहले,
शब्दकोष
साक्षात्कार कराता है
एक नए शब्द से
संतुष्टि,
सपने - कल्पनाएँ
यदि करनी हैं साकार
तो
भाग्य - समय - संतुष्टि
और ईश्वर
इन सबसे करना ही होगा
समझौता,
क्या यह सत्य नहीं है
कि लगा दी गयी आग
गगनचुम्भी इमारतों
को मनाने वाले
मजदूर की झोपड़ी में,
या फिर
क्या कुछ नहीं कहतीं
पुलिस चौकी में बिखरी पड़ीं,

टूटी चूड़ियाँ,
बताओ
क्या यह सत्य नहीं है
कि बेरोजगार सतीश ने
स्वयं को कर दिया
अग्नि के हवाले
या फिर
क्या यह भी सत्य नहीं है
कि
हरिया को पिलाकर शराब
करवाया गया वो काम
जो आता अपराध की संज्ञा में,
यदि स्वयं किया जाता,
अरे - मौन क्यों हो
मेरे प्रश्नों का उत्तर दो
मालूम है भली-भांति,
जब होगा एकांत,
तो किसी क्षण
एकदम शांत
तुम विचार करोगे.
यह सत्य नहीं है
कि अरबों रूपया खर्च किया गया
गरीबों कि झोपडी बनाने में,
तुम संभवतः
डूबते जाओगे
सागर कि गहराइयों में
और प्रयत्न करोगे
किसी सीपी को ढूँढने का
तुम सोचोगे
यह भी सत्य नहीं है
कि क़ानून उसकी रक्षा करता है
जो रक्षा करते हैं
क़ानून की.

अब करनी ही पड़ेगी
लड़ाई,
शांति से,
ख़ामोशी से,
क्योंकि
संघर्ष जीवन का पर्याय है

(11th February, 1992, 10:30 AM, Hermann Gmeiner School, Bhimtal, Nainital, UP, Uttranchal)

परिणति

शोर बहुत है
घर घर चर्चा है
शायद
कहीं कुछ हो गया है
या फिर
किसी का कुछ खो गया है
तलाश जारी है मगर......

आमने- सामने खडें है
दोनों प्रतिध्वंदी
उनको नहीं मालूम
कहाँ क्या हुआ
किसने किया
क्यों हुआ
कैसे हुआ
किसकी दुआ
किसकी बद्द्दुआ
आखिर ऐसा तो
कुछ नहीं हुआ.

किसी को
फलता-फूलता देखा नहीं जा सकता
यदि जा सकता है देखा
तो फिर कटी निगाह से
जो दिखाई ना दे
कहीं से
प्रायः जैसा होता है.

कौन कहता है कि
कहीं कुछ हुआ है.

प्रयास कर रहे हैं
दूर रहें
समाचार पत्र पर डाले निगाह
और समझें
कहाँ क्या हुआ.
शोर क्यों है
कारण क्या है.

आग हर घर मे
क्यों है
इसकी लपटें
कहीं बर्बाद ना कर दें
मेरा आशियाना
कृपया मात्र इतना बतलाना
अब मुझे किधर चाहिए जाना
पश्चिम या पूरब
दक्षिण या उत्तर
असमंजस
आप रहेंगे निरुत्तर
यदि ना हो सका प्रयास
चुप रहने का
फिर लांघ जायेगा सीमा
उसका 'मैं' दिखायेगा
अपनी औकात
किसी की समझ में नहीं आएगी
कोई बात
क्योंकि देखा यह गया है
कि शोर की
परिणति होती है
शांति से
सन्नाटे से
धीरे...

(२३ नवम्बर, १९९१, १०:३० सुबह, हर्मंन माइनर स्कूल, भीमताल, नैनीताल, उत्तरप्रदेश - उत्तरांचल)

Monday, May 17, 2010

कुआँ और खाई

मित्र ने एक बात बताई,
जो खोदते हैं,
दूसरों के लिए कुआँ,
स्वयं खुद जाती है
उनके लिए खाई.
उसकी यह बात
मेरी समझ मे नहीं आई,
तो मैने की खोज,
तो जाकर एक रोज,
जबकि
दूरबीन समान चश्मा
लगाया था,
तो कुछ-कुछ समझ मे आया था,
राजनीति का अध्ययन
करने के पश्चात,
जहाँ हर आदमी एक दूसरे की
कुर्सी के पीछे पड़ा है,
लेकिन उसे नहीं पता कि
उसके पीछे कौन खड़ा है,
यमदूत,
जो स्वयं उसकी कुर्सी के पीछे पड़ा है.

शायद हमारे देश मे,
प्रत्येक व्यक्ति,
किसी ना किसी की 
कुर्सी के पीछे पड़ा है,
चाहे, वह राजनीति हो
या हो
नीति-राज.
यदि ऐसा नहीं है,
तो वह आदमी नहीं है,
वह है आदम.
वस्तुतः
इसीलिये हम जिंदा हैं
और
शर्मिंदा हैं
यहाँ प्रतियोगिता है, प्रतियोगी हैं
सहायता है, सहयोगी हैं
प्रेम है, वियोगी हैं
डाक्टर है, रोगी हैं
दवाई है, निरोगी हैं
अपराध हैं, भोगी हैं
पूजा है, योगी हैं
ढोंग हैं, ढोंगी हैं,
वैसे
सब के सब जोगी हैं.

स्वयं, स्वस्थ हूँ,
मस्त हूँ,
परन्तु अब पस्त हूँ.
वे सोचते हैं,
मैं किसी की कुर्सी के पीछे पड़ा हूँ,
शायद
इसीलिये वे कहते हैं,
मैं तुम्हारी कुर्सी के पीछे खड़ा हूँ,
इसलिए नहीं
कि यदि कुछ डगमगाओ,
तो सहारा दूं,
या, तुम्हे बता सकूं,
जाता सकूँ,
कि मैं तुम्हारे साथ हूँ,
बल्कि इसलिए
कि जब तुम खडे हो,
मैं तुम्हारी कुर्सी,
नीचे से खींच लूं,
और
खिलखिला सकूं,
तुम्हारे गिरने पर.

मैं जानता हूँ,
सच क्या है और कहाँ है,
मस्तिष्ट,
कहीं खो सा जाता है,
स्मरण कराता है,
कुआँ और खाई,
बात अब मेरी समझ मे आई
भलीप्रकार,
जो खोदते हैं,
दूसरों के लिए कुआँ,
स्वयं खुद जाती है,
उनके लिए खाई.

(५ अक्टूबर १९९१, ३ बजे शाम, हर्मन माइनर स्कूल, भीमताल, नैनीताल, उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड)
श्रीमती ममता भट के आग्रह पर, विषय उनके द्वारा दिया गया...

परिवर्तन 2

परिवर्तन,
कहाँ है,
नहीं जानता,
परन्तु है अवश्य,
किसमे
यह भी नहीं मालूम,
परन्तु है अवश्य,
आखिर इसकी आवश्यकता क्या है.

संतुष्टि किसी को नहीं है,
शायद यही हमारी विवशता है,
फिर भी नैतिकता शब्दकोष मे है,
इसको ढूँढ पाना
कोई कठिन नहीं,
है परन्तु
कुछ के लिए,
जो परिवर्तन को परिवर्तित
करते रहते हैं.

सीमा - इसको मैं नहीं जानता,
संतोष - आँखों से बहुत दूर है,
विश्वास - इतिहास की पुस्तकों मे है,
धैर्य - कभी मित्र था,
म्रदुल - आता जाता था,
शोभा - पता नहीं आजकल कहाँ है,

समय, काल व परिस्थिति,
शब्दों की परिभाषाएं
परिवर्तित हो चुकी हैं,
ना जाने कितनी पीड़ियाँ
समर्पित हों चुकी हैं
बिना अर्चना के,
कभी-कभी मस्तिष्ट
प्रश्नों के प्रकाश में,
कुछ सोचने का प्रयत्न करता है
परन्तु प्रयत्न
मात्र प्रयत्न ही रहेगा
मैं जानता हूँ,
निरर्थक होंगे सारे प्रयास
फिर कहाँ होगा विकास...

(११ अक्टूबर, १९९१, ७:१५ बजे संध्या, हर्मंन माइनर स्कूल, भीमताल, नैनीताल, उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड)

साहस

मुझको मालूम है
तुम्हारी आदत,
मैं जानता हूँ,
या
समझ सकता हूँ,
कब, कहाँ, क्यों, क्या होगा,
कौन करेगा,
परन्तु,
मौन हूँ,
क्यों,

पता नहीं.

मैं कुछ नहीं जानता,
उन्हें इन्तजार नहीं है,
सुबह का,
उन्हें प्यास है,
पानी की नहीं,
किसी और की.

वर्तमान में,
सच यह है,
कि
मैं कुछ नहीं जानता,
मुझे मालूम भी नहीं है
कुछ,
क्योंकि सत्य,
सत्य है,
एक कटु सत्य,
जिसे स्वीकारना
परे है,
स्वयं सत्य से,
सब जानते हैं,
सभी को मालूम भी है,
सत्य क्या है,
परन्तु,
साहस सब मे नहीं है,
है  - परन्तु कुछ में.


सत्य,
पीछे है,
काले शीशे कि उस दीवार के,
जिसमे,
इधर से उधर का,
देखा जा सकता है,
उधर रौशनी होने पर,
इधर रौशनी होने पर,
देखा जा सकता है,
उधर से इधर का.

निष्कर्ष,
सत्य को चाहिए,
अभिव्यक्ति,
और
अभिव्यक्ति को चाहिए,
रौशनी - प्रकाश,
और उस हेतु चाहिए,
साहस
जिसकी तलाश है...

(३१ अगस्त १९९१, १०:३५ सुबह, हर्मन माइनर स्कूल, भीमताल, नैनीताल, उत्तरप्रदेश, उत्तरांचल)

परिवर्तन 1

द्वेष, घ्रणा, छल, कपट, असत्य, फरेब,
आदि, इत्यादि,
शब्दों ने
किया है बसेरा मेरे शहर मे,
भाषा में,
चालढाल में,
रंग-ढंग में,
कारण, पता नहीं,
शायद,
वे अधिक फलते फूलते हैं,
शायद,
उन्हें दर्शन होते हैं
परमपिता परमेश्वर के,
शायद,
वे अधिक सम्रद्धवान होते हैं,
शायद,
उन्हे अधिक आदर मिलता है,
समाज से,
राष्ट्र से,
या फिर
उनकी पूँछ होती है,
उनकी पहुँच होती है,
परन्तु
यह निश्चित है कि
वो चोर हैं,
समान के नहीं,
सम्मान के,
हथियार के नहीं,
सत्कार के,
धन के नहीं,
मन के,
मकान के नहीं,
श्य्म्शान के,
यह ऐसी चोरी है,
जिसकी रपट
थानेदार नहीं लिखता,
इसको
प्रकाशित भी नहीं किया जा सकता,
कुछ लोग इसको
वकवास कहते हैं.
इसकी जांच पड़ताल
नहीं की जा सकती,
जासूसों द्वारा
क्योंकि
वे स्वयं जासूस हैं,
कंफुउस हैं,
मनहूस हैं,
डिफुउस हैं,
रिफुउस हैं,
समाज से, परिवार से,
जहां से,
जहाँ वो शरणार्थी हैं.

इसकी रपट लिखी
जा रही है,
इसकी जांच-पड़ताल
भी चल रही है,
उससे संभंधित कार्य
प्रगति पर है,
उनका भविष्य
अंधकार मे नहीं है,
उनके अनुसार,
वो जानता है
उसका परिणाम,
उसकी पीड़ियाँ
भुगतेंगी,
पश्चाताप,
उनकी पीड़ियाँ करेंगी,
उसको डर नहीं है,
बद्दुआओं का,
पीडाओं का,
पीड़ियों की.

परन्तु मैं सोचता हूँ,
क्यों ना अपना शहर बदल लूं,
या फिर
खत्म कर दूं,
इन सबको.
शायद बेहतर
यही होगा,
क्योंकि
यदि मैने शहर बदला,
तो उस शहर मे केवल
उन्ही की आवादी होगी,
परिवार नियोजन से
मुक्त होंगे
वे परिवार,
घर से शहर,
शहर से प्रदेश,
प्रदेश से देश,
देश से परदेश.

अब इन शब्दों का बसेरा
कहीं नहीं होगा
यदि
हम, आप और सब जागें,
देर है
अंधेर नहीं
परिवर्तन होगा
अवश्य
शब्दों में
प्रेम से
सत्य से......

(३० अगस्त, १९९१, ११:१५ सुबह, हर्मन माइनर स्कूल, भीमताल, नैनीताल, उत्तरप्रदेश - उत्तराखंड)

परिचय

परिचय,
किसका, क्यों, किस हेतु,
किस प्रकार
अर्थात
कैसे
व्यक्ति
स्वयं मे स्वयं
एक परिचय है,
उसका नाम
मात्र
पहचान के लिए है;
यदि खो जाये
तो नाम से
ढूँढा जा सके.
कक्षा में नाम से
पुकारा जा सके
प्रकाशित हों सके
समाचार पत्र में.
पिता का नाम
उसके अस्तित्व
से सम्बंधित है,
महत्त्वपूर्ण भी है.
प्रश्न उठता है,
व्यक्ति को
किस नाम से जाना जाता है,
उसके नाम से
या फिर
उसके पिता के नाम से
वास्तविकता यह है
कि एक दूसरे के पूरक हैं
यह दो
परिचयसूत्र,
क्योंकि
कभी
पुत्र, पिता के नाम से जाना जाता है
कभी
पिता, पुत्र के नाम से.
अभिप्राय
सीमा लांघने से है
कौन, किसकी, किस तरह
और कब
सीमा लांघता है...


(२९ अगस्त १९९१, हर्मन माइनर स्कूल, भीमताल, नैनीताल, उत्तरप्रदेश - उत्तराखंड)

पश्चाताप

मेरी चौखट पर
किसी नामर्द की आहट,
मस्तिष्ट विचारता है,
समस्त भूत की पुस्तकें;
कुछ जानी पहचानी सी प्रतीत होती है,
यह दस्तक;
शायद -
पुनः मेरे स्पर्श की कल्पना
उन्हे हो,
परन्तु, बल्कि...
अब मात्र
निष्प्राण, मानव समान
किसी भाषा के प्रयोग
को दर्शाते हैं;
अरे वो .......?
नहीं हों सकता,
मुझे विश्वास नहीं है,
और
हों भी क्यों;
आखिर..........!
खैर...

परिवर्तन,
वक़्त की,
समय की मांग है,
परन्तु -
पुनः स्वयं के प्रयोग को
बाध्य करता है,
शायद
वो भी बिवश है,
किसी को क्या मालूम
सत्य क्या है...
संभवतः
मै भी नहीं जानता,
शायद वह भी नहीं,
फिर भी
कुछ है अवश्य,
यदि नहीं
तो यह आहट
आखिर
जानी, पहचानी
क्यों लगती है,
यदि सत्य,
वास्तव मे सत्य है,
तो करना ही पड़ेगा
पश्चाताप,
मात्र आहट को नहीं,
स्वयं मुझे भी
संतोष
किसे और क्यों...

(२९ अगस्त १९९१, १०:३५ सुबह, हर्मन माइनर स्कूल, भीमताल, नैनीताल, उत्तरप्रदेश (उत्तराखंड))

Sunday, May 16, 2010

काश! मेरा ह्रदय होता आप सा

काश! मेरा ह्रदय होता आप सा

सांझ मेरी गूंजती अटखेलियों में
रात भी होती नई नववेलियों में
स्वप्न कर देते तभी कुछ चिन्ह अंकित
सुबह को खेलता मैं बहेलियों में
दिन प्रति, प्रति-दिन करूँ परिहास सा
काश! मेरा ह्रदय होता आप सा

जब कभी मेरा करें स्पर्श वो
मैने सोचा, वो नहीं, वो, वो, नहीं वो
याद किस-किस की करूँ मस्तिष्ट में
कोई आता कोई जाता शाम को
मेरा हर इक मोड़ करता हादसा
काश! मेरा ह्रदय होता आप सा

मैने सोचा भाव कुछ बढने लगें हैं
क्या कहूं अब शब्द भी लड़ने लगे हैं
माँ बहन मे अब कोई अंतर नहीं है
देह व्यापारों के पर लगने लगे हैं
हर नया महबूब करता स्वांग सा
काश! मेरा ह्रदय होता आप सा

आपका क्या है कोई मिल जाएगा
पर ना अब कोई मेरे घर आएगा
मेरे माथे पर लगी है मोहर जो
उसको कोई आपसा सहलाएगा
सहन करने का मुझे अभ्यास सा
काश! मेरा ह्रदय होता आप सा

(२ मार्च १९८८, तिलक कालोनी, सुभाष नगर, बरेली, उत्तरप्रदेश)

संयोग

मेरे अश्रु,
गुलाब की पत्ती पर पड़ीं,
ओस की बूँदें,
आपस मे
सामंजस्य दर्शाती हैं,
परन्तु,
ओस समय पर आती है,
एकाग्रता के,
भाव से,
परिचित कराती है,
मेर अश्रु,
वक़्त/बेवक्त,
समय/बेसमय,
कुछ नहीं देखते,
अक्सर आते हैं,
परिचित कराते हैं,
अपनी बिवषता से.
कीचड़ मे खिला कमल,
मेरे लिए,
प्रेरणा बन जाता है,
वह भी अपनी,
बिवषता दिखाता है,
ओस की बूँदें,
सीमायें लांघने का,
प्रयास नहीं करतीं,
मेरे अश्रु,
किसी की,
प्रतीक्षा नहीं करते,
अंतर बताती हैं,
प्रश्न कर जातीं हैं,
द्रश्य को,
संयोग बताती है,
मेरी विचारधारा,
मेरा अनुभव...

(१९ फरबरी १९८८, तिलक कालोनी, सुभाष नगर, बरेली, उत्तरप्रदेश)

Wednesday, May 5, 2010

नाक

नाक कभी उठती है, कभी झुकती है
नाक कभी रूकती है, कभी बहती है
नाक कभी लाल होती है, कभी पीली होती है
नाक कभी सूखती है, कभी गीली होती है.

नाक के नीचे मुहं होता है,
जो अधिकतर चुप, सोता है
नाक के ऊपर दो आंखे होती हैं
जो अक्सर बंद, सोतीं हैं

जिसका मुहं बंद रहता है,
और आँख सोती है
मित्रों ऐसों की नाक
शूर्पनखा की होती है....

Monday, May 3, 2010

मेरा कुछ खो गया है

मेरे यार,
मेरा कुछ खो गया है.
नजाने मेरे ह्रदय को,
आज क्या हो गया है.

मेरे यार
मेरा कुछ खो गया है.

एक डाक्टर,
मुझे बी पी से
पीड़ित बताता है,
दूसरा,
ह्रदय को अमरीका
ले जाता है,
सर्जन,
ऑपरेशन की
सलाह दे जाता है,
मनोवैज्ञानिक,
टेली-पेथी से
परिचित कराता है,
ज्योतिषी,
कंप्यूटर का
स्विच दबाता है,
पुलिस विभाग,
आत्महत्या का
प्रयास बताता है,
पत्रकार,
डिटेल जानने को
विवश हो जाता है,
परन्तु,
कवि,
श्रृंगार रस की
कविता सुनाता है,
अनुभव कराता है,
जिसमे उनकी
तस्वीर रहा करती थी,
मेरे ह्रदय का,
वह पुर्जा,
आज
बंद हो गया है.
मेरे यार
मेरा कुछ खो गया है.
मेरे यार
मेरा कुछ खो गया है...

(१९ फरबरी १९८८, तिलक कालोनी, सुभाष नगर, बरेली, उत्तरप्रदेश)