Wednesday, December 18, 2013

वासना

(१६ दिसंबर २०१२ की रात भारत की राजधानी दिल्ली में एक अमानवीय, अशोभनीय व ह्रदयविदारक दुर्घटना हुई जिसने संभवतः प्रत्येक भारतीय के मस्तिष्ट को झकझोर दिया. बीते वर्ष के अंतिम दो सप्ताहों में दिल्ली की सड़कों पर एक आन्दोलन ने जन्म लिया, समाचार पत्रों व टीवी चैनलों पर चर्चाओं व परिचर्चाओं ने एक ऐसा वातावरण बनाया जिसकी परिणति एक सख्त क़ानून बनकर हुई. मैंने उन्ही दिनों यह कविता लिखी थी, अब आप सभी के साथ साझा कर रहा हूँ.)

वासना बस वास करती 
सड़क लतपथ सांस भरती
इस जगह से उस जगह तक 
इस बदन से उस बदन तक 
वाहनों की आस भरती
सड़क लतपथ सांस भरती 
वासना बस वास करती

ज्योति बोली आँख खोलो 
कुल ह्रदय के पाट खोलो 
इस जखम से उस जखम तक 
उस वतन से इस वतन तक 
मानसिकता को टटोलो 
कुल ह्रदय के पाट खोलो
ज्योति बोली आँख खोलो 

नीति झूठी न्याय झूठा 
सकल कागज़ ज्ञान झूठा 
इस कलम से उस कलम तक 
इस नियम से उस नियम तक 
व्यक्तिमुख विज्ञान झूठा 
सकल कागज़ ज्ञान झूठा
नियति झूठी न्याय झूठा 

कौन झूठा कौन सच्चा 
मौन रूठा मौन सच्चा 
इस विनय से उस विनय तक 
इस विजय से उस विजय तक 
बदन झूठा प्राण सच्चा 
मौन रूठा मौन सच्चा
कौन झूठा कौन सच्चा 

कौन जीते कौन हारे 
आँख भीगी मौन हारे 
इस शहर से उस शहर तक 
इस ह्रदय से उस ह्रदय तक 
जीत किसकी कौन हारे 
आँख भीगी मौन हारे
कौन जीते कौन हारे 

मौत जीती शर्म हारी 
दामिनी यम दीप प्यारी 
इस सफ़र से उस सफ़र तक 
इस सड़क से उस सड़क तक 
कान रोये आँख भारी 
दामिनी यम दीप प्यारी
मौत जीती शर्म हारी 

यत्न सच्चा युक्ति सच्ची 
बदन झूठा म्रत्यु सच्ची 
इस करम से उस करम तक 
इस जनम से उस जनम तक 
सच समर्थित सूक्ति सच्ची 
बदन झूठा म्रत्यु सच्ची
यत्न सच्चा युक्ति सच्ची 

ह्रदय अच्छा जतन अच्छा 
कुल बदन कुल मनन अच्छा 
इस विषय से उस विषय तक 
इस सतह से उस सतह तक 
संघ सच संकल्प सच्चा
कुल बदन कुल मनन अच्छा
ह्रदय अच्छा जतन सच्चा 

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Monday, December 9, 2013

कपड़े

मैं कपड़ो को पहनता हूँ
मुझे कपड़े पहनते हैं
बदन का आवरण बन
वेदना को पंख देते हैं
कहाँ संकट कहाँ पीड़ा
कहाँ संचय कहाँ संशय
मैं इतना सोच सकता हूँ
कि क्यों कपड़े बदलते हैं
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Thursday, November 28, 2013

सोच सकता हूँ

मैं सुनाता आ रहा हूँ 
गीत कविता
सुन जिसे क्यों सो गया है
कुल जहाँ संकुल यहाँ 
क्यों आँख खोले सो गया है
सत्य आशय झूठ संशय
एक आशा एक भाषा
सोच सकता हूँ मैं इतना
तन बदन अब रो गया है
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Friday, November 15, 2013

मोबाइल की सीख

क्या सोचता होगा
बेचारा मोबाइल

सुनता है सबकी कहानी
उसको संप्रेषित करता है
चुन लिए गए लोगो को
मोबाइल पहचानता है
उसके मालिक के
विभिन्न रूपों को
मालिक की
हर क्षण परिवर्तित
भाषा व शैली
भाव व बोली

मोबाइल परेशान होता है
कभी-कभी हँसता है
जोर से
कभी-कभी क्रुद्ध होता है
सर पीटता है
मालिक को गाली देता है
मालिक की
निष्ठा के क्षणिक बदलाव पर
चुप रहता है
(बोलने की
प्रबल इच्छा होते हुए भी)

मोबाइल
लड़ाई का कारण बनता है
लड़ाइयों को कई बार
समाप्त भी करवाता है
कितनी ही बार झूठ सहता है
बहानों को संजोता है
दोस्त और दुश्मनों को
अपने में सुरक्षित करता है
अट्टहासों पर रोता है
बेबुनियाद अश्रुओं पर हँसता है

मोबाइल का
चेतन व अवचेतन एक है
किसी भी भेद से परे
नेटवर्क होते हुए भी
नेटवर्क न होने का बहाना
घर में होते हुए
बाहर होने का बहाना
मीटिंग में न होते हुए भी
मीटिंग में होने का बहाना
आदि इत्यादि
न जाने कितने
सच दिखने वाले झूठ 
सहता है

मोबाइल फिर भी
नहीं रखता है
अपने मालिक को
अपने स्पर्श से बंचित
उसकी परम श्रद्धा पूज्यनीय है
वन्दन योग्य है

मैंने कई मनुष्यों को देखा है
मोबाइल की भांति
करते व्यवहार
मोबाइल की भांति
करते स्वीकार
सत्य-असत्य सब
मोबाइल की भांति
करते ग्रहण सबकुछ
अपनी परम श्रद्धा
व विश्वास
अपने मालिक के प्रति
क्या हम कुछ
पूर्ण अथवा आंशिक रूप से
सीख सकते है
इस सीधे-साधे-सच्चे
मोबाइल से

Friday, November 8, 2013

भ्रम - द्रष्टिभ्रम

जैसा दीखता है
वैसा होता नहीं है
व्यक्ति 
व्यवस्था
व्यथा

वो जैसे दीखते हैं
उनको पता है
वैसे नहीं हैं वे

जैसे भी हैं वे
वैसे दीखते नहीं है

कई बार
रुके हुए
चलते दीखते हैं
कई बार
चलते हुए
रुके हुए
दिखाई देते हैं

व्यवस्था अच्छी दीखती है
अच्छी न होते हुए भी
या फिर व्यवस्था
अच्छी नहीं दीखती है
क्योंकि
हमारे पूर्वाग्रह
हमें वह दिखाते हैं
जो हम देखना चाहते हैं

स्वस्थ दीखने वाला व्यक्ति
आंतरिक रूप से
कितना अस्वस्थ होता है
नहीं दीखता है हमें

एक प्रश्न
क्या
व्यक्ति
व्यवस्था, व
व्यथा
हमको ख़राब
या
अच्छी दीखता
या दीखती है
क्योंकि हम उसको
वैसा देखते हैं
जैसा देखना चाहते हैं

हमारा चाहना ही तो
हमारा चश्मा होता है
जिसे हम प्रायः
अपनी सुविधानुसार
पहनते
या बदलते हैं
यह कोई दृष्टिभ्रम नहीं होता. 

Wednesday, October 23, 2013

कुर्सी

कुर्सी
प्रतीक्षा में है
कोई आये
और
उसको अपनाये
अपने सपनो से कहीं अधिक
अपनी भूख से परे
अपनी सीमाओं में रहकर।

अप्रत्याशित
अस्वभाविक
असहनीय
वेदना में लिप्त
कुर्सी
प्रतीक्षा में है।

क्या नहीं देखा
अनुभव किया
इस कुर्सी ने
विभिन्न व्यक्तियों का सानिग्ध
उनका व्यक्तित्व
उनकी भाषा विचार व्यवहार
क्या-क्या नहीं सहा
इस कुर्सी ने
प्रज्ञा प्रबोध व पीड़ा
प्रमोद प्रसाद व परिवाद।

कुर्सी को ज्ञात है
उसका अस्तित्व
उसके हत्थों पर रखे
मजबूत हाथो से है
उसके जमे हुए पाओं से है
उसके नुकीले काँटों पर
निस्वार्थ
निर्विवाद
व निष्पक्ष भावना से लिए
निर्णयों में है
उसका अस्तित्व
निर्भीक व्यक्तित्व से है।

कुर्सी का अस्तित्व कदापि नहीं है
उसकी लकड़ी
या वनावट से
उसपर लगी दीमक से
उसकी पूजा करने वालों से
उस पर की गई पॉलिश से
या
पोंलिश करने वालों से
उसके सेवादारों से
उस पर भिऩकने वाली मक्खियों से।

कुर्सी
प्रतीक्षा में है
कोई आये
संभाले व सजाये
मेरी शोभा बढ़ाए
काँटों की पीड़ा से परे
फूलों की सेज सजाये
कोई आये
अपने व्यक्तित्व की खुशबू से
वातावरण को महकाए
नई ऊर्जा को जन्म दे
संस्थान को चमकाए
कोई आए
कोई आए
कुर्सी
प्रतीक्षा में है। 

Sunday, October 13, 2013

हाथ

हाथ की उँगलियाँ बताती हैं
साथ रहना बहार करता है
इक हथेली है बाँध लेती है 
रक्त गिरकर दरार करता है
हाथ मुट्ठी है हस्त-रेखा है 
ज्ञान मिट्टी है पस्त देखा है
सोच सकता हूँ बस यही अब मैं 
हाथ ताली से वार करता है
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Thursday, September 12, 2013

दौड़

सूरज की
प्रथम किरण के साथ ही
हो जाती है प्रारंभ
दौड़,
चाहे आप चीता हों
अथवा हिरन।

चीता दौड़ता है
इस आशय से
कि उसको
मरना पड़ेगा भूखा
यदि नहीं मिला
उसको उसका शिकार
उसको दौड़ना ही पड़ेगा,
दौड़ते रहना पड़ेगा
अन्यथा मार देगी उसको
भूख।

और हिरन
दौड़ता है
इस आशय से
कि यदि नहीं दौड़ा वह
तो बन जायेगा शिकार
पीछे आ रहे चीते का
मार देगी उसको
चीते की भूख।

चीता या हिरन
सूरज की
प्रथम किरण के साथ ही
हो जाती है प्रारंभ
दौड़।

हम सबको दौड़ना पड़ता है
दौड़ना पड़ेगा
दौड़ना चाहिए
अपनी भूख मिटाने के लिए
और
इसलिए भी
कि कहीं हम
किसी दूसरे की भूख का
शिकार न हो जाएँ,

चाहे हम
स्वयं दौड़ें
अथवा
दौड़ाये जाएँ।

Wednesday, September 4, 2013

रिश्ते

81

सुलगती आग आँखों में 
समझता क्यों नहीं कोई
उलझती डोर रिश्ते की 
समझता क्यों नहीं कोई
उलझने को सुलझते 
देखने मे हर्ष होता है  
बस इतना सोचता हूँ 
यह समझता क्यों नहीं कोई
-----------------------------------

80 - ज्ञान 2 
79- समय  
76 - अलंकार
75 - कारक
74 - मोती
73 - क्यों 
72 - रिश्ते 2 
71 - मुस्कराना 
70 - सवेरा 
68, 69 - होली 2013
67 - रिश्ते 
66 - आस 
65 - गन्तव्य
64 - मैं इतना सोच सकता हूँ 15 
63 - मैं इतना सोच सकता हूँ 14 
61, 62 - मैं इतना सोच सकता हूँ 13 
60 - मैं इतना सोच सकता हूँ 12    
57 से 59 तक  - मैं इतना सोच सकता हूँ 11
54 से 56 तक  - माँ तुझे सलाम
51 से 53 तक  - मैं इतना सोच सकता हूँ 10
48 से 50 तक - मैं इतना सोच सकता हूँ 9 
47 - राजनीति 
44 से 46 तक - मैं इतना सोच सकता हूँ 8 
38 से 43 तक - मैं इतना सोच सकता हूँ 7 
28 से 37 तक - मैं इतना सोच सकता हूँ 6 
25 से 27 तक  - मैं इतना सोच सकता हूँ 5 
24 - नींद 
23 - विविधता 
20 से 22 तक - मैं इतना सोच सकता हूँ 4 
19 - विवाह 
18 - संतुष्टि 
17 - आवाज 
12 से 16 तक - मैं इतना सोच सकता हूँ 3 
7 से 11 तक - मैं इतना सोच सकता हूँ 2
1 से 6 तक - मैं इतना सोच सकता हूँ  1 

Friday, August 16, 2013

ज्ञान - २


80

मैं खिड़की खोलकर बैठा 
किसी की राह जोहे था 
वो रोशन-दान पर 
पर्दा लगाकर 
ज्ञान भोगे था
तभी दस्तक हुई 
दरवाजे पर 
मेरे पड़ोसी के 
बस इतना सोचता था 
क्यों अंधेरा भार ढोहे था

---------

79- समय  
76 - अलंकार
75 - कारक
74 - मोती
73 - क्यों 
72 - रिश्ते 2 
71 - मुस्कराना 
70 - सवेरा 
68, 69 - होली 2013
67 - रिश्ते 
66 - आस 
65 - गन्तव्य
64 - मैं इतना सोच सकता हूँ 15 
63 - मैं इतना सोच सकता हूँ 14 
61, 62 - मैं इतना सोच सकता हूँ 13 
60 - मैं इतना सोच सकता हूँ 12    
57 से 59 तक  - मैं इतना सोच सकता हूँ 11
54 से 56 तक  - माँ तुझे सलाम
51 से 53 तक  - मैं इतना सोच सकता हूँ 10
48 से 50 तक - मैं इतना सोच सकता हूँ 9 
47 - राजनीति 
44 से 46 तक - मैं इतना सोच सकता हूँ 8 
38 से 43 तक - मैं इतना सोच सकता हूँ 7 
28 से 37 तक - मैं इतना सोच सकता हूँ 6 
25 से 27 तक  - मैं इतना सोच सकता हूँ 5 
24 - नींद 
23 - विविधता 
20 से 22 तक - मैं इतना सोच सकता हूँ 4 
19 - विवाह 
18 - संतुष्टि 
17 - आवाज 
12 से 16 तक - मैं इतना सोच सकता हूँ 3 
7 से 11 तक - मैं इतना सोच सकता हूँ 2
1 से 6 तक - मैं इतना सोच सकता हूँ  1 

Thursday, August 8, 2013

समय

79

समय से हो गया परिचय
समय आँखें लगाए था
मेरी आँखें हुईं थीं नम
तेरा सपना सताये था
नहीं कोई मेरा अपना
नहीं कोई मेरा सपना
बस इतना सोचता था 
क्यों मुझे अपना बताए था

=================

76 - अलंकार
75 - कारक
74 - मोती
73 - क्यों 
72 - रिश्ते 2 
71 - मुस्कराना 
70 - सवेरा 
68, 69 - होली 2013
67 - रिश्ते 
66 - आस 
65 - गन्तव्य
64 - मैं इतना सोच सकता हूँ 15 
63 - मैं इतना सोच सकता हूँ 14 
61, 62 - मैं इतना सोच सकता हूँ 13 
60 - मैं इतना सोच सकता हूँ 12    
57 से 59 तक  - मैं इतना सोच सकता हूँ 11
54 से 56 तक  - माँ तुझे सलाम
51 से 53 तक  - मैं इतना सोच सकता हूँ 10
48 से 50 तक - मैं इतना सोच सकता हूँ 9 
47 - राजनीति 
44 से 46 तक - मैं इतना सोच सकता हूँ 8 
38 से 43 तक - मैं इतना सोच सकता हूँ 7 
28 से 37 तक - मैं इतना सोच सकता हूँ 6 
25 से 27 तक  - मैं इतना सोच सकता हूँ 5 
24 - नींद 
23 - विविधता 
20 से 22 तक - मैं इतना सोच सकता हूँ 4 
19 - विवाह 
18 - संतुष्टि 
17 - आवाज 
12 से 16 तक - मैं इतना सोच सकता हूँ 3 
7 से 11 तक - मैं इतना सोच सकता हूँ 2
1 से 6 तक - मैं इतना सोच सकता हूँ  1 

Thursday, July 18, 2013

आदमी और मौत 2

आदमी और मौत 1 से आगे … 

मौत सबकी है आपकी भी है 
क्यों भला लड़ के लोग जीते हैं
जिंदगी प्यार की कहानी है
इसको बुनते हैं आओ सीते हैं

मैंने सपने भी कुछ सजाये हैं
उनको बाटूँगा आप हंस देंगे 
आपकी उस हंसी के कारण से
स्वप्न बिखरेंगे प्राण भर देंगे


आप हँसते रहेंगे जीवन भर
मौत आएगी लौट जाएगी
आप उसको गले लगायेंगे
हाँथ झटकेगी मुस्कराएगी

आप रोकर उसे पुकारेंगे
उसको अब कुछ हंसी तो आएगी
उसकी स्मृति उबाल पर होगी 
अट्टहासों से तुम्हे सताएगी 

उसके हंसने में आप रोओगे
और तड़पोगे छटपटाओगे
तुम्हे अनुनय-विनय थकाएगी
भूत की पुस्तकें मंगाओगे

पृष्ट दर पृष्ट उड़ रहे होंगे
सभी स्म्रतिचिंह पाओगे
शीत वायु उष्ण ज्वर देगी 
दर्पणों को सभी मंगाओगे 

ह्रदय के शूक्ष्मतम तिकोने में
कर्म और काण्ड याद आयेंगे
आत्मबल साथ छोड़ता होगा
'अहम्' विदाई  गीत गायेंगे

मौत दर्पण को  हाथ में लेकर
तुमको तुम से मिला रही होगी
और दुनिया तुम्हारी आंखें देख
अपने आंसू बहा रही होगी

आप से तुम पर आ गया हूँ मैं
तुम से तू हो तो कुछ नहीं कहना
एक बालक पुकारता माँ को
तुम से तू पर रही सही है ना

इसलिए कहता हूँ औरों पे छोड़ दो हँसना
वरना रोओगे तुम मौत भी ना आएगी
करवटें छीन रात बिस्तर पर
तुमको हर पल बहुत सताएगी  


मेरे सन्दर्भ सोच कर देखो
तुमको सब कुछ समझ में आएगा
एक दर्पण रखो हमेशा साथ
तुमको अंतःकरण सिखाएगा   

दोष औरों पे लगा ना पाओगे
रोष करना भी सुधर जायेगा 
मौत फिर हंसके तुमसे बोलेगी
प्राण मिथ्या अधर पे आयेगा 

तुम्हारी राह देख रो लेगी 
पास आएगी सार बोलेगी 
साधना सत्य की सजगता से 
साथ जाएगी पाट खोलेगी 

अपने जीवन को इस तरह ढालो 
प्रेम से देखो प्रेम से बोलो
प्रेम सिखलाओ अपने मित्रों को
प्रेम की चाबी से ताले खोलो 

====================

Thursday, July 11, 2013

आदमी और मौत 1

आदमी मौत से जब प्यार करने लगता है
मौत हंस देती है संवाद छोड़ देती है
अनुभवों के विशाल संचय से 
खोज कर लेती है बस याद जोड़ देती है 

दोष औरों में देख सकते हो 
कितने शीशों को तोड़ सकते हो  
आदमी 'मै' में जी नहीं सकता 
कितने औरों को जोड़ सकते हो 

रोष क्यों उनपे आप करते हैं 
उनको जीना है यार जीने दो
आप कांटो की सेज पर सोओ
उनको फूलों के हार लेने दो 
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Wednesday, June 26, 2013

ज्ञान

78

अजी क्यों लोग अपने ज्ञान को सर पर चड़ाते हैं
यही अज्ञान होता है स्वयं न जान पाते हैं
किसी से लेके शीशा देखते हैं सर नहीं झुकता
बस इतना सोच सकता हूँ वही अपमान पाते हैं

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77 - अनुरक्ति 
76 - अलंकार
75 - कारक 
74 - मोती 
73 - क्यों 
72 - रिश्ते 2 
71 - मुस्कराना 
70 - सवेरा 
68, 69 - होली 2013
67 - रिश्ते 
66 - आस 
65 - गन्तव्य
64 - मैं इतना सोच सकता हूँ 15 
63 - मैं इतना सोच सकता हूँ 14 
61, 62 - मैं इतना सोच सकता हूँ 13 
60 - मैं इतना सोच सकता हूँ 12    
57 से 59 तक  - मैं इतना सोच सकता हूँ 11
54 से 56 तक  - माँ तुझे सलाम
51 से 53 तक  - मैं इतना सोच सकता हूँ 10
48 से 50 तक - मैं इतना सोच सकता हूँ 9 
47 - राजनीति 
44 से 46 तक - मैं इतना सोच सकता हूँ 8 
38 से 43 तक - मैं इतना सोच सकता हूँ 7 
28 से 37 तक - मैं इतना सोच सकता हूँ 6 
25 से 27 तक  - मैं इतना सोच सकता हूँ 5 
24 - नींद 
23 - विविधता 
20 से 22 तक - मैं इतना सोच सकता हूँ 4 
19 - विवाह 
18 - संतुष्टि 
17 - आवाज 
12 से 16 तक - मैं इतना सोच सकता हूँ 3 
7 से 11 तक - मैं इतना सोच सकता हूँ 2
1 से 6 तक - मैं इतना सोच सकता हूँ  1