Wednesday, January 11, 2012

मकान की तलाश

मैं ढूँढ रहा था
एक मकान
राजधानी समीप
इस पथरीले जंगल में


मैं ढूँढ रहा था
गीली मिटटी
कुछ कण रेता
कुछ फूल, पत्ते और पेड़
सूरज और धूप
चंदा और चांदनी
चहचहाती चिड़ियाँ
नीला आकाश

मुझे मिले
कुछ अदद जानवर
दलालों के रूप में
पक्का सीमेंट
अटूट रिश्तों सा
पैसे से
पैसे के रिश्ते
रिश्तों के पैसे
फूल सी भाषा
काँटों सा व्यवहार

मुझे मिला
धुंधलीला आकाश
मिली
कीचड
प्लास्टिक के पत्ते
चमचमाते सिक्के
इस
राजधानी समीप
पथरीले जंगल में
इस
सब्जी बाज़ार में
जहाँ
आलू, मकान और माल
मे कोई अंतर नहीं है

मुझे ज्ञात हुआ
उतना घातक नहीं होता
मकान का बाज़ार मे होना
जितना घातक होता है
बाज़ार का मकान में होना


इस पथरीले जंगल मे
कुछ मकानों मे घर है
कुछ मे मात्र बाज़ार


इस
जंगल के जानवर
कर रहे हैं
इन मकानों की सुरक्षा
बेहतर बाज़ार की
प्रतीक्षा में

व्यापार
रोज़गार, व
बाज़ार
सब कुछ इस
पथरीले जंगल मे है

मेरी तलाश जारी रहेगी
जारी रहेगा
मोल-भाव, नाप-तोल, लेन-देन
जानवरों के साथ
कब बाज़ार देगा
मुझे एक मकान
और कब
मैं बनाऊंगा
उस मकान को
घर.

7 Jan 2012, Intercity express, delhi to bareilly, 9 pm 

4 comments:

  1. कब बाज़ार देगा
    मुझे एक मकान
    और कब
    मैं बनाऊंगा
    उस मकान को
    घर.
    सच्चाई को खूबसूरती से बयान करती है आपकी रचना

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  2. मुझे ज्ञात हुआ
    उतना घातक नहीं होता
    मकान का बाज़ार मे होना
    जितना घातक होता है
    बाज़ार का मकान में होना

    बिलकुल सच कहा आपने

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  3. कविता में हकीकत, हकीकत में कविता...

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  4. ishwar kare aao is khoj mein safal hon...!

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