मेरी कविताएं
Monday, February 15, 2016
जड़
ज़मीन ज़रूर उसकी कई एकड़ों में थी,
गिनती भी उसकी वैसे कई हेकड़ों में थी,
जीने का सलीका, न शराफत से दोस्ती,
जो खोट थी वो उसकी हिलती जड़ों में थी।
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