कान कहते हैं आंख सुनती है
उनकी नज़रों की राह बुनती है
कृत्य पदचिन्ह छोड़ बढ़तेे हैं
उंगलियां छोड़ हाथ लड़ते हैं
उनके पलकों से रेत उड़ती है
और कंधों पे सेज सजती है
रीढ़ का दर्द मुझसे कहता है
'इतना क्यों मुझको यार सहता है'
रात के बाद सुबह होनी है
मुझको यह सोच आज बोनी है
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