Sunday, November 14, 2010

एक वार्तालाप

"आपकी  कवितायेँ  ठीक  से  खुल  नहीं  रही  हैं .
आपके  ब्लॉग  में  जा  के  भी  देखा."

"मेरे सिस्टम मे सब खुल रही हैं..."

"अब  मेरे  सिस्टम  में  भी  खुल  गयीं  हैं "

"समस्या सिस्टम की है...
कविता की नहीं
(बिचारी कविता बदनाम है)
सिस्टम ठीक होने पर
हर कविता खुलती है....
सिस्टम ख़राब होने पर
कविता लिखी जाती है
सिस्टम ठीक होने पर
कविता पड़ी जाती है..."

"क्या बात है!  शाबाश!! 
आप तो 'आशु'  कवि भी हैं. 
अभी-अभी पता चला.
बहुत खूब!!!"
***
समय, भावना, कल्पना, मजबूरी,
उड़ान, संघर्ष, साहस, व दूरी
हिम्मत, व्यवहार, सोच, व भाषा,
सपने, आँखें, दिशा और आशा
जिसको ना बना सके कवि,
सोचिये उसकी कैसी होगी छवि....

:::विजय कुमार श्रोत्रिय:::

3 comments:

  1. सहज शब्दों में तकनीक के बहाने एक गंभीर बात कह रही है कविता.. सिस्टम का विम्ब सर्वथा नया है..

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  2. खुली-खुली सी, एकदम सिस्‍टमेटिक कविता.

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  3. शब्द और भाव इस खूबसूरती से गूंथे हैं आपने के रचना पढ़ने के बाद बरबस मुंह से वाह निकल जाती है...बधाई स्वीकार करें

    नीरज

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