Thursday, March 7, 2013

गन्तव्य


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एक वो हैं और एक हूँ मैं एक पथ है और एक वाहन है
एक होना अनेक होना है क्योंकि उपलब्ध आज साधन है
दूरियाँ बढ रहीं हैं नदियों सी सबका गन्तव्य एक होकर भी
सोच सकता हूँ बस यही अब मैं डूबकर ही शरीर पावन है
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3 comments:


  1. उत्कृष्ट प्रस्तुति भाई साहब .

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  2. दूरियाँ बढ रहीं हैं नदियों सी सबका गन्तव्य एक होकर भी

    बहुत सही कहा आपने
    सादर!

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  3. मैं बदलना चाहता हूँ क्यों सरल में हर जटिल को
    और देना चाहता हूँ इक दिशा बहते सलिल को
    प्रश्न मुझको भेद करते सोच पर्वत पात ढलते
    सोच सकता हूँ मैं इतना श्वेत होना उस कपिल को

    कोई लम्बी काव्य रचना चल रही है ....?

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