Wednesday, October 12, 2011

मैं इतना सोच सकता हूँ

१.
मैं जितना सोच सकता हूँ, वहीँ तक सिर उठाता हूँ
मगर जब आँख दबती है, सभी कुछ भूल जाता हूँ
तेरा चेहरा मेरा दर्पण, तेरा दर्पण मेरा चेहरा
मैं इतना सोच सकता हूँ, तभी तो सर झुकाता हूँ.
२.
मेरे घर लोग आते हैं, मुझे सर पर चडाते हैं
मगर जब आँख दबती है, मुझे सपने सताते हैं
तेरा कहना मेरा सुनना, तेरा सुनना मेरा कहना
मैं इतना सोच सकता हूँ, मुझे मेरे सताते हैं.
३.
मुझे क्यों क्षोभ होता है, उन्हे क्यों लोभ होता है
मगर संयम, नियम, संशय लघु प्रयोग होता है
तेरी बातें मेरी आंखें, तेरी आंखें मेरी बातें 
मैं इतना सोच सकता हूँ, नहीं संयोग होता है.
४.
मेरा हर रोम शोभित है, तेरी हर सांस संशित है
मगर वो कृत्य और वो वाण, शब्दशः सुरक्षित है
तेरा कहना मेरा सुनना, तेरा हँसना मेरा सहना 
मैं इतना सोच सकता हूँ, सभी उस ओर संचित है.
५.
मेरी क्यों द्रष्टि विकसित है, मुझे अब बोध होता है
अगर सबका सही हो भूत, कभी ना क्रोध होता है
मेरा कहना, मेरा जगना, मेरा सपना, मेरा अपना
मैं इतना सोच सकता हूँ, जहाँ प्रबोध होता है. 
६.
मुझे हर जीत का कारण, नया प्रतीत होता है
मगर जब हार होती है, नहीं कोई मीत होता है
मेरी श्रद्धा, मेरा आश्रय, मेरी करुणा, मेरा आशय
मैं इतना सोच सकता हूँ, मधुर संगीत होता है.

5-6 oct 2011, navmi/dashmi, shillong

1 comment:

  1. मेरे घर लोग आते हैं, मुझे सर पर चडाते हैं
    मगर जब आँख दबती है, मुझे सपने सताते हैं
    तेरा कहना मेरा सुनना, तेरा सुनना मेरा कहना
    मैं इतना सोच सकता हूँ, मुझे मेरे सताते हैं.

    ५.
    मेरी क्यों दृष्टि विकसित है, मुझे अब बोध होता है
    अगर सबका सही हो भूत, कभी ना क्रोध होता है
    मेरा कहना, मेरा जगना, मेरा सपना, मेरा अपना
    मैं इतना सोच सकता हूँ, जहाँ प्रबोध होता है.

    बहुत अच्छी लगीं उपर्युक्त पंक्तियाँ

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