Wednesday, June 26, 2013

ज्ञान

78

अजी क्यों लोग अपने ज्ञान को सर पर चड़ाते हैं
यही अज्ञान होता है स्वयं न जान पाते हैं
किसी से लेके शीशा देखते हैं सर नहीं झुकता
बस इतना सोच सकता हूँ वही अपमान पाते हैं

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77 - अनुरक्ति 
76 - अलंकार
75 - कारक 
74 - मोती 
73 - क्यों 
72 - रिश्ते 2 
71 - मुस्कराना 
70 - सवेरा 
68, 69 - होली 2013
67 - रिश्ते 
66 - आस 
65 - गन्तव्य
64 - मैं इतना सोच सकता हूँ 15 
63 - मैं इतना सोच सकता हूँ 14 
61, 62 - मैं इतना सोच सकता हूँ 13 
60 - मैं इतना सोच सकता हूँ 12    
57 से 59 तक  - मैं इतना सोच सकता हूँ 11
54 से 56 तक  - माँ तुझे सलाम
51 से 53 तक  - मैं इतना सोच सकता हूँ 10
48 से 50 तक - मैं इतना सोच सकता हूँ 9 
47 - राजनीति 
44 से 46 तक - मैं इतना सोच सकता हूँ 8 
38 से 43 तक - मैं इतना सोच सकता हूँ 7 
28 से 37 तक - मैं इतना सोच सकता हूँ 6 
25 से 27 तक  - मैं इतना सोच सकता हूँ 5 
24 - नींद 
23 - विविधता 
20 से 22 तक - मैं इतना सोच सकता हूँ 4 
19 - विवाह 
18 - संतुष्टि 
17 - आवाज 
12 से 16 तक - मैं इतना सोच सकता हूँ 3 
7 से 11 तक - मैं इतना सोच सकता हूँ 2
1 से 6 तक - मैं इतना सोच सकता हूँ  1 

Wednesday, June 19, 2013

प्रणाम

प्रोफेसर माधवेन्द्र प्रसाद पाण्डेय द्वारा 12 जून 2013 को फेसबुक पर निम्न पंक्तियाँ लिखी गयीं .... 

प्रणाम,
कभी प्रणाम किया है
अनन्त आकाश को,
चमकते सूर्य को, 
छलकते झरने को, 
मृदु, कोमल हवा के झोंकों को
कभी सचमुच, झुक कर प्रणाम किया है ?

हाथ जोड़ कब खड़े हो गए हो तुम
किसी जंगल, वन, घाटी या 
मुस्कुराते वृक्ष के सामने ?
क्षुद्रता क्या त्यागी है कभी इतनी
कि कृतज्ञता-भाव से
आपाद नमन किया हो
उस हवा को जिसने तुम्हें सांसे दीं ?

इन पंक्तियों के उत्तर में मैंने लिखा ...

और 
क्या कभी 
महसूस किया है 
दर्द 
उन ओस की बूंदों का 
जिन्हे पता नहीं है 
तुम्हारा नाम
तुम अकस्मात ही 
व्यस्त नहीं हो गए 
अपनी पीड़ा बांटने 
इस आशा से परे
कि इन आँख से 
गिरे मोतियों 
और 
ओस की बूंदों मे 
कोई सामंजस्य हो 

प्रणाम 
हे सूर्य
तुझे प्रणाम
प्रणाम 
हे आकाश
हे चट्टान
हे वायु
हे मेघ 
प्रणाम 
हे पुष्प 
हे किरण 
हे बूंद
हे अश्रु
प्रणाम 
हे प्रकृति 
प्रणाम....

Wednesday, June 12, 2013

अनुरक्ति

77

यह मौसम ले गया 
घर से उड़ाकर हास्य के स्वर
कि जैसे बैठ मैं 
शमशान मे देखूँ मचलते पर 
अजब सी बात है 
पत्थर मुझे पानी पिलाते है 
बस इतना सोचता हूँ 
क्यों रही अनुरक्ति जीवन भर
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76 - अलंकार
75 - कारक 
74 - मोती 
73 - क्यों 
72 - रिश्ते 2 
71 - मुस्कराना 
70 - सवेरा 
68, 69 - होली 2013
67 - रिश्ते 
66 - आस 
65 - गन्तव्य
64 - मैं इतना सोच सकता हूँ 15 
63 - मैं इतना सोच सकता हूँ 14 
61, 62 - मैं इतना सोच सकता हूँ 13 
60 - मैं इतना सोच सकता हूँ 12    
57 से 59 तक  - मैं इतना सोच सकता हूँ 11
54 से 56 तक  - माँ तुझे सलाम
51 से 53 तक  - मैं इतना सोच सकता हूँ 10
48 से 50 तक - मैं इतना सोच सकता हूँ 9 
47 - राजनीति 
44 से 46 तक - मैं इतना सोच सकता हूँ 8 
38 से 43 तक - मैं इतना सोच सकता हूँ 7 
28 से 37 तक - मैं इतना सोच सकता हूँ 6 
25 से 27 तक  - मैं इतना सोच सकता हूँ 5 
24 - नींद 
23 - विविधता 
20 से 22 तक - मैं इतना सोच सकता हूँ 4 
19 - विवाह 
18 - संतुष्टि 
17 - आवाज 
12 से 16 तक - मैं इतना सोच सकता हूँ 3 
7 से 11 तक - मैं इतना सोच सकता हूँ 2
1 से 6 तक - मैं इतना सोच सकता हूँ  1 

Thursday, June 6, 2013

जैसी चाह वैसी राह

हम वह सोचते हैं
जो सोचना चाहते हैं
हम वह पड़ते हैं
जो पड़ना चाहते हैं
हम वह खाते हैं
जो खाना चाहते हैं
हम वह पहनते हैं
जो पहनना चाहते हैं

क्या सोचना
क्या पड़ना
क्या खाना
क्या पहनना
और न जाने ऐसी
कितनी ही क्रियाएं
व कारक
निर्भर करते हैं
इस पर
आखिर चाहते क्या हैं
हम और आप

प्रयास आवश्यक है
जानने का यह
आखिर चाहते क्या हैं हम
जानिये - प्रयोग कीजिये 
स्वयं पर
अपने जानने के हक का
जानिये
आखिर चाहते क्या हैं आप
चाहिए अच्छा
होगा सब अच्छा

एक विडम्बना
आखिर क्यों
अक्सर
वह नहीं कर पाते हैं
जो करना चाहते हैं हम