Thursday, April 2, 2020

कोरोना से करुणा की ओर

हम घर से बाजार निकले थे,
सामान जुटाने,
जीविकोपार्जन के लिये,
बाजार ने दिया काम,
काम ने दिखाए सपने,
और सपनों को साकार करने लिए,
भागने लगे हम ।

हम सब,
अपना सब कुछ भूलकर,
परिवार से दूर,
घर से बाजार की ओर,
गाँव से शहर की ओर,
सूक्ष्म से स्थूल की ओर,
मैदान से पत्थर की ओर,
अभाव से प्रभाव की ओर,
कम से अधिक की ओर,
एक से अतिरेक की ओर ।

हम भागते रहे, हांफते रहे पर भागते रहे,
ज्ञान से विज्ञान की ओर,
ज्ञात से अज्ञात की ओर,
स्पर्धा से प्रतिस्पर्धा की ओर,
अनुरोध से आदेश की ओर,
स्वीकृति से प्रतिरोध की ओर ।

हम भागते रहे, हांफते रहे पर भागते रहे,
कम से अधिक की ओर,
छोटे से बड़े की ओर,
रिश्तों से रुपयों की ओर,
योग से प्रयोग की ओर,
उपयोग से उपभोग की ओर,
जीवन से जीविका की ओर,
ठहराव से बहाव की ओर,
धरती से आसमान की ओर,
पूरव से पश्चिम की ओर,
प्रकृति से कृतिम की ओर ।

हम भागते रहे, हांफते रहे पर भागते रहे ।

अविराम - विश्राम से परे,
करते रहे दोहन,
साधनों-संसाधनों का,
प्रकृति का,
अपने स्वार्थ हेतु,
अपने हित हेतु,
और, और से भी और की चाह में,
हम भागते रहे, हांफते रहे पर भागते रहे ।

आशाएं व अभिलाषाएं बढ़ती रहीं,
अपनी अपनी कहानियां गढ़ती रहीं,
रोकती रहीं, टोकती रहीं,
जब-जब साहस किया,
जाने का, बहाव से ठहराव की ओर ।

प्रतिभाओं व प्रतिस्पर्धाओं से ग्रसित मन,
उपभोग का आदी शरीर,
आसमान को छूने की तमन्ना,
आकाश से ऊंचे उड़ने का हौसला,
प्रयासों से कमाई पूंजी,
कंधों में समाहित ऊर्जा,
सब कुछ रोकते रहे,
विवश करते रहे प्रयासरत रहने को,
सपनों को साकार करने के लिए,
सपने जो समय के अनुसार बदलते रहे,
और हम, भागते रहे, हांफते रहे पर भागते रहे ।

संबंधों से दूर,
जमीन से ऊपर वाहन में, विमान में,
सब कुछ भूल कर,
बाजार के इशारे पर,
सूक्ष्म से बहुत दूर,
पत्थरों के शहर में,
जहां सब कुछ था, अधिक मात्रा में,
स्थूलता में परिलक्षित –
धन, भवन, व सुविधाएं,
यही दिखने वाला, सब कुछ,
और हम, भागते रहे, हांफते रहे पर भागते रहे ।

पार करते रहे नदियां,
बहकर और तैरकर, कूदते-फाँदते,
पार किए समंदर, एक नहीं, सात-सात,
मानवीय क्षमताएं हैं अपार,
और अपार है उनका संसार,
सात समंदर पार,
यह ज्ञात हुआ,
एक अज्ञात शहर में ।

विश्वास किए बिना
कि प्रकृति भी लेती है बदला,
अपने तरीके से,
कभी किसी को नहीं मिलता,
भाग्य से अधिक,
और समय से पहले ।

हम घर से बाजार निकले थे,
सामान जुटाने, सौदा खरीदने,
जीविकोपार्जन हेतु,
उस बाजार में जहां सब कुछ बिकता है,
बाजार में सब सामान है,
फिर चाहे
वह रिश्ते हों या हवा पानी,
समय हो या संभावनाएं,
मनुष्य हो या मनुष्यता,
यहाँ सब कुछ चलता है,
मांग-पूर्ति के नियमों के अनुसार,
सब कुछ निर्धारित करता है, बाजार,
मांग-पूर्ति व कीमत,
बाजार के अनुसार,
हर रिश्ते का होता है मूल्य,
हर सामान की होती है कीमत,
जो हम चुकाते हैं,
हम कीमत चुकाते रहे,
और भागते रहे, हांफते रहे पर भागते रहे ।

लगने लगा, जब हम चुका सकते हैं कीमत,
तो भागते रहते हैं,
हिरण और चीते, दोनों से तेज,
और यही सब मानकर,
हम भागते रहे, हांफते रहे पर भागते रहे,
बनकर एक बिचौलिये,
प्रकृति व बाजार के बीच,
प्रकृति ने बनाया मानव,
और मानव ने बाजार,
और अपने अहम में, अपने दम्भ में,
यह साधारण सा समीकरण,
भूल बैठे हम,
अपना दौड़ना जारी रहा,
और उस दौड़ में,
उस अज्ञान के बहाव में,
इतना समय ही नहीं मिला,
कि अपने विवेक का कर पाते प्रयोग  ।

हम दौड़ते रहे, भागते रहे,
जीविकोपार्जन के आगे,
हांफते रहे पर भागते रहे ।

जब हमारी दौड़ ने,
सारी सीमाएं कर लीं पार,
और हम करने लगे प्रयास,
भागते-भागते पहुँचने का,
मंगलग्रह पर,
(कृतिम तकनीकों के द्वारा),
समय ने मिलकर प्रकृति के साथ,
बनाई एक योजना और खड़ी की,
कुछ ऐसी परिस्थिति,
समस्त मानव जाति के समक्ष,
कि हम समझ सकें अपनी औकात ।

आज हम सब भाग रहें हैं,
अपने अस्तित्व को बचाने के लिए,
आज ली जा रही है, हमारी परीक्षा,
शायद प्रकृति ले जाना चाहती है,
हमें वापस अपने घरों की ओर,
स्थूल से सूक्ष्म की ओर,
पत्थर से जमीन की ओर,
मौद्रिक मूल्यों से मानवीय मूल्यों की ओर,
मशीन से मनुष्यता की ओर,
बाजार से घर की ओर,
शहर से गाँव की ओर,
प्रभाव से अभाव की ओर,
अधिक से कम की ओर,
विज्ञान से ज्ञान की ओर,
उपभोग से उपयोग की ओर,
प्रतिस्पर्धा से सहयोग की ओर,
आदेश से अनुरोध की ओर,
प्रतिरोध से स्वीकृति की ओर,
रुपयों से रिश्तों की ओर ।

हम क्या साथ लाए थे,
जब आए थे, घर से बाजार,
हम कितना साथ ले जा रहे हैं,
जब जा रहे हैं, बाजार से घर,
एक अनुभवों की पोटली ।

चलो हम सब अब चलते हैं,
प्रयोग से योग की ओर,
जीविका से जीवन की ओर,
बहाव से ठहराव की ओर,
अज्ञान से ज्ञान की ओर,
आसमान से धरती की ओर,
पश्चिम से पूरव की ओर,
कृतिम से प्रकृति की ओर,
कोरोना से करुणा की ओर ।

प्रकृति शायद ले जाना चाहती है,
हमें वापस,
अपने घरों में,
अपने परिवारों व रिश्तों के बीच,
(जिन्हे हम बाजार आते समय घर छोड़ आए थे),
अपने स्वयं के बीच,
स्वनिरीक्षण हेतु ।

हमने क्या किया प्रकृति द्वारा प्रदत्त संसाधनों का,
हमने उसके द्वारा दी गई स्वतंत्रता का,
कितना बनाया मज़ाक,
और हम समझने लगे,
स्वयं को मालिक,
जुट गए संभावनाएं तलाशने की,
कि कैसे हम बना सकें,
मंगल गृह पर अपना घर ।

आज हम सब छिपे हैं,
अपने अस्तित्व को बचाने के लिए,
अपने घरों में, अपने बिलों में,
सब कुछ होते हुए भी,
क्या है हमारे पास,
हैं तो मात्र कुछ रिश्ते,
आसपास
या फोन की कान्टैक्ट लिस्ट में,
जिन्हे पैसे से नहीं खरीदा जा सकता ।

हम सबको ढूढ़ने होंगे रास्ते,
जीवन बचाने के,
इस परीक्षा की घड़ी में,
जीविकोपार्जन से कहीं अधिक,
हम दुखी हों या खुश,
हमें बदलने होंगे,
अपने जीने के तरीके,
बाजार के नियमों से परे,
बाजार के अस्तित्व से इतर,
जहां के लिए हम निकले थे,
सामान जुटाने, सौदा खरीदने,
जीविकोपार्जन हेतु ।