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Saturday, August 16, 2014

रास्ते

ये टेढ़े रास्ते लेकर
मुझे मंजिल दिलाएंगे
मेरे हर कृत्य को
सम द्रष्टि देकर भूल जायेंगे
मेरी यात्रा मुझे जीवन परख
मे व्यस्त रखेगी
बस इतना सोचता हूँ
ये कदम पत्थर सजायेंगे
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Thursday, July 17, 2014

पहिये

हम अब थक चुके हैं
पंचर हो या न हो
हमे रुकना ही पड़ेगा
बिना मुकाम पर पहुंचे


या फिर
देश

संस्थान की तरह
चलते रहेंगे
जुगाड़ से
राम भरोसे
भोले शंकर की कृपा से
जुगाड़ से जोड़े हुए
पंचरों के सहारे
फिर चाहे तपी धूप हो
या
वर्फ से दूधिया सड़क
हमारा काम चलना ही तो है
यही सब सिखाया गया है हमको
चरैवेति-चरैवेति


और तुम
जो मालिक समान
लदे हुए हो हम पर
बिना किये लिहाज
हमारी उम्र का
हमारे कद का
(कद जो कभी हमारा अपना न हो सका)


मानो
हमारी वेदना को जानो
हम अब थक चुके है
हमे चाहिए विराम
यदि पूर्ण नहीं
तो कम से कम
अर्धविराम


कोई नहीं जानता है मुकाम
तुम फिर क्यों चला रहे हो हमे
तुम क्यों नहीं देख पा रहे हो
रिस्ता लहू
तुम संभवतः
जानकार भी अंजान बनने का
कर रहे हो ढोंग


हम पहिये
देखना चाहते हैं तुमको
बनते हुए पहिये
और करना चाहते हैं
तुम पर सवारी
तुमको जताना चाहते हैं
मुकाम पर पहुंचने के लिए
कभी न कभी
हम सभी को बनना पड़ता है
पहिया
और हम इस पूर्वाग्रह से ग्रसित रहते हैं
कि रौंदते रहेंगे पहियों को
बिना किसी डर के
उनके पंचर होने की
लेशमात्र भी आशंका के परे
इसीलिए कभी नहीं पहुँचते हैं
अपने मुकाम पर
जीवन भर चलते रहने के बाद भी


समझो हमारी पीड़ा
हम अब थक चुके हैं
पंचर हो या न हो
हमे रुकना ही पड़ेगा
बिना मुकाम पर पहुंचे


(प्रो० एस के मिश्र द्वारा निम्न कविता मिली___ उसके उत्तर में उपरोक्त पंक्तियाँ भेजी)


पहिये


हम टायर लगे पहिये हैं
जो अपने फेंफड़ों में दम रोके
जेठ की धूप में
तवे सी जलती ऊबड़ खाबड सड़कों पर दौडते
गाड़ी को सर पर लिए
चार गधों को
जिसे सवारी कह्ते हैं
मुक़ाम के क़रीब तक ले जाने के लिए ही
जी रहे हैँ ।


नहीं जानते, कब, कहाँ और किस वज़ह से
हम में से एक
पंक्चर हो जाएगा,
दम तोड़ देगा
बीच सड़क पर
वहां
जहाँ से सवारियों के मुक़ाम
बहुत, बहुत दूर हों
और
पंक्चर बनाने वाले की दूकान
ढूंढे न मिलती हो ।


प्रभु, ऐसा न होने देना
शंकर, तेरा सहारा
बुरे का हो मुँह काला
फ़िर मिलेंगे ।
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सुधाँशु

Thursday, March 7, 2013

गन्तव्य


65

एक वो हैं और एक हूँ मैं एक पथ है और एक वाहन है
एक होना अनेक होना है क्योंकि उपलब्ध आज साधन है
दूरियाँ बढ रहीं हैं नदियों सी सबका गन्तव्य एक होकर भी
सोच सकता हूँ बस यही अब मैं डूबकर ही शरीर पावन है
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Wednesday, January 23, 2013

सड़क


सड़क पर कांच के टुकड़े पड़े कुछ बात कहते हैं
किसी की दौड़ मंजिल बिघ्न संशय पात कहते हैं
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सभी गंतव्य सीधे हैं अगर हों साथ सच मोती
सड़क पथ द्रष्टि देती है सुझाये युक्ति नवज्योति

सड़क ले जाती है सबको सभी के घर स्वयं चलकर
मगर अपने उसूलों से वो टस से मस नहीं होती

मैं अक्सर देखकर गड्ढा सड़क पर चेत होता हूँ
मगर फिर भी मुसाफिर पर वो इक आंसूं नहीं रोती

जो सिगरट को दबाकर यों सड़क पर पीस देते हैं
वो उनकी वेदना को पढके हंसती है नहीं रोती

हमारी जिंदगी की बड रही रफ़्तार कहती है
सड़क बस सीख देती है कभी भी वो नहीं सोती

उसे गति गीत गाने से नहीं रोको नहीं टोको
कोई प्रतिफल नहीं सोचे न ही हीरे न ही मोती

सड़क ले जाती है सबको सभी के घर स्वयं चलकर

मगर अपने उसूलो से वो टस से मस नहीं होती

Friday, June 29, 2012

सोंचता हूँ

आदमी से आदमी, क्यों  भागता है दूर,
जानता है भांजता है, फिर वही भरपूर,
सोंचता हूँ खोल दूं, मैं चक्षु चलकर स्वयं
जानकर होता नहीं संतोष पथ पर चूर।

10 May 2012, Shillong 

Monday, May 7, 2012

मैं इतना सोच सकता हूँ - 3

१२.
मेरे सब मित्र अच्छे हैं, मुझे मंजिल दिखाते हैं
मगर फिर क्यों वही मुझसे, सही रस्ता छिपाते हैं
मेरी मंजिल, तिरा निर्णय, तिरा संशय, मेरा रस्ता
मैं इतना सोच सकता हूँ, नहीं मंजिल वो पाते हैं.
१३.
मेरे सब बाल पकते हैं, वो बालों को रंगाते हैं
मगर क्यों उम्र को हम, सब प्रकारों से छिपाते हैं
तेरा रुकना, मेरा चलना, तेरा चलना, मेरा रुकना
मैं इतना सोच सकता हूँ, नहीं हम सोच पाते हैं.
१४.
मुझे आकाश के तारे, चमक कर क्यों बुलाते हैं
अगर उस व्योम मे इतने, मधुर स्वर गुनगुनाते हैं
तेरी आशा, मेरी मंशा, मेरे अपने, मेरी सीमा
मैं इतना सोच सकता हूँ, कि वे क्यों झिलमिलाते हैं.
१५.
मुझे रोना नहीं आता, उन्हे हंसना रुलाता है
मगर निष्प्राण जीवन का, यही चेहरा दिखाता है
तेरी भाषा, तेरे आंसू, तेरी क्रिया, तेरी बोली
मैं इतना सोच सकता हूँ, नहीं कुछ साथ जाता है.
१६.
मुझे क्यों नींद आती है, उन्हें क्यों स्वप्न आते हैं
अगर हो कर्म सब अच्छे, निरर्थक अर्थ पाते हैं
मेरी निद्रा, तेरे सपने, मेरी आंखें, तेरी रचना
मैं इतना सोच सकता हूँ, नहीं अपने बताते हैं.

7 oct 2011, shillong