Monday, March 31, 2014

मार्च का महीना

सेमीनारों का महीना 
पहने हारों का महीना  

बैनर पोस्टर का महीना
फ़ाइल फोल्डर का महीना 

पड़ते पर्चों का महीना
छपते चर्चों का महीना

आने जाने का महीना
ताने बाने का महीना

ऐसे वैसों का महीना
रुपये पैसों का महीना

खर्चों खातों का महीना 
जगती रातों का महीना

फर्जीवाड़ो का महीना 
बंद किवाड़ों का महीना 

खुदते गड्ढों का महीना 
लगते अड्डों का महीना 

खिलते फूलों का महीना 
चुभते शूलों का महीना 

Friday, March 21, 2014

जड़

देखो
नई नवेली
मांग भरी दुल्हन समान
सड़क
रंग भेद से परे
करीने से छोड़े गए
हाशिए के साथ

देखो
ध्यान से देखो
उसपर जहाँ-तहां
उगती झांकती घास
बुलडोज़र से
कुचले जाने के बाद भी

कोमल घास जीवंत है
मानो कह रही हो
सीधे-साधे मजदूर
कभी नहीं
खोदते हैं
काटते हैं
किसी की जडें
जब तक
न निर्देशित किया जाये
मालिकों के द्वारा
किसी की जड़ों को
खोदने
या
काटने के लिए

Wednesday, March 12, 2014

चश्मा

मैं जैसा चाहता हूँ देखना
वैसा चश्मा पहनता हूँ
मगर हर द्रश्य बेहतर हो
नहीं सकता समझता हूँ
मेरी आंखे मेरा चश्मा
मेरी आशा मेरी भाषा
बस इतना सोच सकता हूँ
क्यों न विकल्पों को समझता हूँ
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Thursday, March 6, 2014

ज़रूरी है

वसीम बरेलवी जी ने एक गजल लिखी थी जिसकी दो पंक्तियाँ इस प्रकार थी:

उसूलों पे जब आंच आए तो टकराना ज़रूरी है
जो ज़िंदा हो तो ज़िंदा नज़र आना ज़रूरी है 

इन पंक्तियों को कुछ दिन पहले शैलेश लोढ़ा जी ने एक कार्यक्रम मे सुनाया। तत्पश्चात संजय श्रोत्रिय ने फेसबुक पर, इन्हे अपनी वाल पर टांग दिया। पड़कर अच्छा लगा। मैं कलकत्ता से शिलांग आ रहा था... सो उसी बीच सोचा कितना कुछ है जो ज़रूरी है, सो निम्न पंक्तियों का जन्म हुआ।

1

हर जिन्दा दिल को दिल का हाल बतलाना ज़रूरी है
वो जो मुर्दों से सोये चैन से उन्हे चेताना ज़रूरी है
मैं आँखें खोलकर सोया वो जगकर आँख मीचे है
बस इतना सोचता हूँ क्यों नज़र आना ज़रूरी है

2

अगर कमजोर रिश्ते हों तो घबराना ज़रूरी है
दिखाई दे गलत रस्ता तो हट जाना ज़रूरी है
तु अपनी आँख केवल लक्ष्य पर रख मस्त होकर जी
बस इतना सोचता हूँ अब इक ठिकाना जरुरी है

3

नदी को पार करना है तो तैरना आना ज़रूरी है
जमी से उड़ रहे लोगो को यह बतलाना ज़रूरी है
वो चिड़िया खाके चावल उड़ गई मुझसे कहा इतना
जो हठ में जी रहे उनको यह समझाना जरुरी है

4

संभल कर चलना है तो पेट मे खाना ज़रूरी है
चलें जब तीब्र गति से तो कभी रुक जाना ज़रूरी है
वह घोड़ा अस्तबल से हिनहिना कर कह रहा इतना
अगर हो चैन से सोना तो घर आना ज़रूरी है


लिखी कविता को मित्रों तक पहुँचाना ज़रूरी है
किताबी ज्ञान अच्छा है हाँ माना ज़रूरी है
मगर क्या पुस्तकें ही ज़िन्दगी को राह देती हैं
सजग जीवन को जीवट तत्व से मिलवाना ज़रूरी है


Sunday, March 2, 2014

वक़्त

आज जाता है कल कहाता है
चाँद सूरज पे मुस्कराता है
रात-दिन आज-कल नहीं होते
वक़्त आता है वक़्त जाता है