वसीम बरेलवी जी ने एक गजल लिखी थी जिसकी दो पंक्तियाँ इस प्रकार थी:
उसूलों पे जब आंच आए तो टकराना ज़रूरी है
जो ज़िंदा हो तो ज़िंदा नज़र आना ज़रूरी है
इन पंक्तियों को कुछ दिन पहले शैलेश लोढ़ा जी ने एक कार्यक्रम मे सुनाया। तत्पश्चात संजय श्रोत्रिय ने फेसबुक पर, इन्हे अपनी वाल पर टांग दिया। पड़कर अच्छा लगा। मैं कलकत्ता से शिलांग आ रहा था... सो उसी बीच सोचा कितना कुछ है जो ज़रूरी है, सो निम्न पंक्तियों का जन्म हुआ।
1
हर जिन्दा दिल को दिल का हाल बतलाना ज़रूरी है
वो जो मुर्दों से सोये चैन से उन्हे चेताना ज़रूरी है
मैं आँखें खोलकर सोया वो जगकर आँख मीचे है
बस इतना सोचता हूँ क्यों नज़र आना ज़रूरी है
2
अगर कमजोर रिश्ते हों तो घबराना ज़रूरी है
दिखाई दे गलत रस्ता तो हट जाना ज़रूरी है
तु अपनी आँख केवल लक्ष्य पर रख मस्त होकर जी
बस इतना सोचता हूँ अब इक ठिकाना जरुरी है
3
नदी को पार करना है तो तैरना आना ज़रूरी है
जमी से उड़ रहे लोगो को यह बतलाना ज़रूरी है
वो चिड़िया खाके चावल उड़ गई मुझसे कहा इतना
जो हठ में जी रहे उनको यह समझाना जरुरी है
4
संभल कर चलना है तो पेट मे खाना ज़रूरी है
चलें जब तीब्र गति से तो कभी रुक जाना ज़रूरी है
वह घोड़ा अस्तबल से हिनहिना कर कह रहा इतना
अगर हो चैन से सोना तो घर आना ज़रूरी है
5
लिखी कविता को मित्रों तक पहुँचाना ज़रूरी है
किताबी ज्ञान अच्छा है हाँ माना ज़रूरी है
मगर क्या पुस्तकें ही ज़िन्दगी को राह देती हैं
सजग जीवन को जीवट तत्व से मिलवाना ज़रूरी है