कर्मवीरों अब उठो देखो खिली सी धूप
ह्रदय खोलो प्रेम की धारा धवल हो रूप
बाजुओं की वीरता का अंत होता काल
ज्ञान के झर बीज पूर्वज बो गए अब ढाल
अब नहीं विश्राम चाहे बीतें शत प्रहर
अब दिशा पकड़ो भुलाकर ऊर्जा का ज्वर
काम का अम्बार पथ से ना करे भ्रमित
प्रण विनय परिश्रम प्रणय प्रतिमूर्ति अमित
कौन बैठा किस भवन किस डाल किस तरुवर
तुम तुम्हारी दृष्टि तुम्हारे तीर तुम्हारे कर
तुम उजाला बन करोगे रौशनी हर घर
याद रखना शाम का ढलना नहीं पथ पर
धूप ओझल हो भला तुम कर्मबल देखो
शाम ढल जाए प्रकृति का रूप कल देखो
चील कौए कीट कीड़े सब प्रकृति के जीव
एक मानव ही जुटा है अभिग्रहण निर्जीव
(प्रो० एस के मिश्र द्वारा निम्न कविता मिली___ उसके उत्तर में उपरोक्त पंक्तियाँ भेजी)
शाम सहसा ढल गयी है
धूप ओझल हो गयी है ।
जो जहाँ हैं, लौटने को हो रहे तैयार
काम का वैसे पड़ा है सामने अंबार
अब करेंगे, अब करेंगे, हो गयी दुपहर
सोचने में और गुजरा एक अन्य प्रहर ।
डूबने को जा रहा मसि-सिंधु में संसार
मच्छरों की फ़ौज़ है उन खिड़कियों के पार
हैं वहीं टकरा रहे चमगादड़ों के पर
गूँजते हैँ हर तरफ बस झींगुरों के स्वर ।
ऊँघते उल्लू जमे हैँ शाख पर हर ओर
उस तरफ से आ रहा है शावकों का शोर
दूर तक दिखता नहीं है रौशनी का श्रोत
कर सकेंगे राह रौशन ये निरे खद्योत ?
शाम सहसा ढल गयी है ।
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सुधाँशु