Friday, August 29, 2014

सपना

मैं ढोना चाहता हूँ बोझ
सपनों का इन कन्धों पर
किसी को कष्ट में देखूं
तो खोलूं बाहें बन्दों पर
किसी की ईर्ष्या को
प्रेम से जीतूँ यही सपना
बस इतना सोच सकता हूँ
लगा विराम धंधों पर
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Friday, August 22, 2014

मैं इतना सोच सकता हूँ

हम अपनी बाजुओं के जोर
को अब आजमाएंगे
बहुत प्रतीक्षा करने में
आंसू सूख जायेंगे
अजब खेमो में बंटकर
आप हम क्यों दूर होते हैं     
बस इतना सोच सकता हूँ
उन्हे उनके रुलायेंगे  
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Saturday, August 16, 2014

रास्ते

ये टेढ़े रास्ते लेकर
मुझे मंजिल दिलाएंगे
मेरे हर कृत्य को
सम द्रष्टि देकर भूल जायेंगे
मेरी यात्रा मुझे जीवन परख
मे व्यस्त रखेगी
बस इतना सोचता हूँ
ये कदम पत्थर सजायेंगे
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Friday, August 8, 2014

कर्मबल

कर्मवीरों अब उठो देखो खिली सी धूप
ह्रदय खोलो प्रेम की धारा धवल हो रूप
बाजुओं की वीरता का अंत होता काल
ज्ञान के झर बीज पूर्वज बो गए अब ढाल

अब नहीं विश्राम चाहे बीतें शत प्रहर
अब दिशा पकड़ो भुलाकर ऊर्जा का ज्वर
काम का अम्बार पथ से ना करे भ्रमित
प्रण विनय परिश्रम प्रणय प्रतिमूर्ति अमित

कौन बैठा किस भवन किस डाल किस तरुवर
तुम तुम्हारी दृष्टि तुम्हारे तीर तुम्हारे कर
तुम उजाला बन करोगे रौशनी हर घर
याद रखना शाम का ढलना नहीं पथ पर

धूप ओझल हो भला तुम कर्मबल देखो
शाम ढल जाए प्रकृति का रूप कल देखो
चील कौए कीट कीड़े सब प्रकृति के जीव
एक मानव ही जुटा है अभिग्रहण निर्जीव

(प्रो० एस के मिश्र द्वारा निम्न कविता मिली___ उसके उत्तर में उपरोक्त पंक्तियाँ भेजी)

शाम सहसा ढल गयी है 

धूप ओझल हो गयी है । 

जो जहाँ हैं, लौटने को हो रहे तैयार 
काम  का वैसे पड़ा है सामने अंबार 
अब करेंगे, अब करेंगे, हो गयी दुपहर 
सोचने में और गुजरा एक अन्य प्रहर । 

डूबने को जा रहा मसि-सिंधु में संसार  
मच्छरों की फ़ौज़ है उन खिड़कियों के  पार 
हैं वहीं  टकरा रहे चमगादड़ों के पर 
गूँजते हैँ हर तरफ बस झींगुरों के स्वर । 


ऊँघते उल्लू जमे हैँ शाख पर हर ओर 
उस तरफ से आ रहा है शावकों का शोर 
दूर तक दिखता नहीं है रौशनी  का श्रोत 
कर सकेंगे राह रौशन ये निरे खद्योत ?

शाम सहसा ढल गयी है । 

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सुधाँशु

Friday, August 1, 2014

मेघालय में बरसात

क्यों हो गई हो तुम
इतनी निर्दयी
तुम्हारे स्पर्श को यह धरती
व 
उसपर रहनेवाले
तरस रहे हैं
सोचो क्या होगा
तुमपर आश्रित जीवों का
लगता है
तुम्हारी संवेदना शक्ति
समाप्ति की ओर अग्रसर है
तुम्हारा शुष्क व्यवहार
सभी को
शुष्क करता जा रहा है
धरती का ताप चड़ाव पर है
आकाश की गड़गडाहट
कुछ आस बंधाती है
परन्तु एक तुम हो कि
अपने प्रण पर अडिग दीखती हो
संभवतः तुम
तुमपर आश्रित जीवों की
परीक्षा ले रही हो
उनके संयम की परीक्षा
भलीभांति यह जानते हुए कि
कोई भी
तुमपर निर्भरता से परे नहीं है

तुम्हारा अडिग व्यवहार
मुझे विचलित कर रहा है

यह वह नगरी है जहाँ
तुम्हारा वास होता था
तुमसे इस नगरी की पहचान थी
इस नगरी में तुम्हारी जान थी
तुम इस नगरी की शान थी

मेरी स्मरण शक्ति
मुझे तुम्हारी
ममताभरी कहानियां याद करने को
कह रही है
पूर्वजों द्वारा तुम्हारा मार्मिक वर्णन
तुम्हारी करुणामयी आँखें
सब कुछ
मेरी स्मृति को चुनौती दे रहा है
तुम क्यों भूल गयी हो
इस नगरी की राह
इस नगर से क्यों तुमको
नहीं रहा प्यार
या
तुम्हारा यह रूप
किसी प्रतिशोध की
अभिव्यक्ति है

इस अप्राकृतिक समय में
तुम भी अप्राकृतिक हो जाओगी
मुझे ज्ञात नहीं था

मेरी सारी प्रार्थनाएं
व्यर्थ लगती हैं मुझे
तुम टस से मस
होने को तैयार नहीं दीखती हो

सोचो एक क्षण
हमारे पारस्परिक संबंधों के बारे में
हमारी पारस्परिक निर्भरता के सन्दर्भ में
मुझे कोई विकल्प नहीं सूझ रहा है अब

हे इंद्र देव!
कुछ कृपा करो