Tuesday, April 26, 2016

तीस्ता

तीस्ता के सहारे
चले जा रहे हैं,
दायें-बाहें, ऊँचे-नीचे,
पहाड़ों पर।

















तीस्ता नहीं छोड़ती है साथ,
अपनी गति, गन्तव्य व गहनता को
पोटली में बांधे
समय, काल व परिस्थिति के साथ
करते समझौता,
मानव छेड़खानी से जूझते,
बांधों से टकराते,
अपना रास्ता स्वयं बनाते,
तीस्ता चली जा रही है।

पत्थरों के साथ लुड़कती,
देश-देशान्तर की
परिकल्पना के विरुद्ध,
तीस्ता चली जा रही है।

कटाव, रिसाव, व झुकाव से
जन्म लेते विकास की गति को
अपने कन्धों पर ढोते
तीस्ता चली जा रही है।

सड़क के चौड़ा होने से
अवरुद्ध अवश्य होती है
उसकी गति,
परंतु
अपने सेवा भाव में सराबोर
उसका व्यक्तित्व
सब कुछ सहने को
तैयार दीखता है,
परंतु कब तक।

कब तक,
आखिर कब तक
हम अपने हितों के लिए
उसकी गति को
अवरुद्ध करते रहेंगे,
बनाते रहेंगे
बाँध व सड़कें,
चकाचौंध करने वाली
रोशनी के लिए।













कब तक,
आखिर कब तक
अल्पकालिक रोशनी के लिए 
संजोते रहेंगे
दीर्घकालिक अँधेरे को।
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[सिलीगुड़ी से गंगटोक के रास्ते पर तीस्ता के भिन्न रूपों को देख कर निकली यह पंक्तियाँ, 26 अप्रैल 2016, Mayfair hotel n resort, Gangtok, 6:50 pm, room #523]

Saturday, April 2, 2016

फूल


[प्रो0 विद्यानंद झा जी द्वारा उनके फेसबुक पेज पर इस चित्र को देखकर मिली प्रेरणा]
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देखो
ध्यान से देखो
किस प्रकार तुमने 
टुकड़े कर दिए
हमारे परिवार के

हमारी शोभा हमारे अलग रहने में भी है 

हममे 
अभी भी सुगंध का वास है
अभी भी 
हम सक्षम हैं 
तुम्हारा ध्यानाकर्षण करने में 

तुमने 
हमारा त्याग तो किया
परंतु भूल गए 
कि हमारा जीवन 
त्याग से ही प्रारम्भ होता है
हम अपने लिए कभी नहीं जीते 
समर्पण ही तो हमारा जीवन है 

हम मंदिर की शोभा का कारण भी हैं
और 
अंतिम यात्रा में तुम्हारे सहयात्री भी

देखो
हमको 
इन चार कन्धों पर 
जा रहे निर्जीव पथिक के ऊपर 
समर्पित किया गया 
हम अपनी यात्रा को विराम नहीं देना चाहते थे  
सो हमने ज़मीन पर रहना 
बेहतर समझा

सड़क पर हमें 
कुचले जाने का भय तो है
परंतु अपने परिवार से 
जुड़ने का अवसर भी तो 
यहीं है

हम कब तक 
  रह सकते हैं दूर काँटों से

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