Saturday, April 24, 2021

रिश्ते

दरवाज़ों से
प्रवेश करते हैं रिश्ते
चौखटें लांघते हैं
खिड़कियों से झांकते हैं
रोशनदानों को निहारते हैं
चहारदीवारी पर छलांग लगाते हैं
छतों पर घूमते हैं
दुछत्तियों में छिपते हैं
कमरों में भटकते हैं

रिश्ते परदे हटाते हैं और डालते भी हैं
करवटें बदलते हैं
दरारों से झांकते हैं
कई बार कोनों में दुबकते भी हैं
आँगन में छाँव तलाशते हैं
परछाई से साथ चलते हैं
 
दीवारों पर टांग दिए जाते हैं
बड़े क़रीने से
फूलमालाओं के साथ
रिश्ते चलते रहते हैं
यादों के साथ
रुकते तो हम हैं.

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Sunday, April 18, 2021

समय

आदमी उपयोग से उपभोग पथ पर जा रहा था 

और जीवन चंद्रमा पर खोज मन पर छा रहा था

गिरा मुँह के बल चपल बल भूल आँखें मींच बैठा 

अब उसे अनुभव दिशा भ्रम ज्ञान कुछ-कुछ आ रहा था 

Wednesday, February 10, 2021

मनुष्य और बाज़ार

घातक है बाज़ार का वर्चस्व
बाज़ार हमारी ज़रूरत पूरी करे
ना कि हम बाज़ार की 

हम होते जा रहे हैं
बाज़ार की ज़रूरत
बाज़ार के सहारे छोड़ दिया है
सब कुछ, रिश्ते भी
हम सब सामान हो गए हैं
बिक रहे हैं, बिना हमारे जाने 
हमें लगता है
हम बाज़ार जाते हैं
सामान व सुविधाएँ ख़रीदने
वास्तविकता में तो हम बिक रहे होते हैं
बाज़ार में

बाज़ार घुस आया है
हमारे घरों के भीतर
और हम ख़ुशी-ख़ुशी उसका
कर रहे हैं स्वागत
हमें काफ़ी कुछ मुफ़्त में दिया जा रहा है
और हम उत्साह में, उन्माद में
उसे सहर्ष स्वीकार कर रहे हैं
बिना यह जाने
कि जब कभी, कुछ भी, होता है, मुफ़्त 
तो हम सामान हो जाते हैं
उन सभी कम्पनियों के लिए
जो कर रही होती हैं 
हमारी भूख का व्यापार 
और मुफ़्त का उन्माद 
बंद कर देता है
हमारी आँखें
हमारा दिमाग़
और यह सब 
दिशा देने लगता है
हमारी मनोवृत्ति को 
और मुफ़्त से बनी मनोवृत्ति
नियंत्रित करती है
हमारी मानसिकता
हम और गरीब होते जाते हैं
अपनी सोच में

बाज़ार हमें एक ना एक नशे का
कर रहा होता है आदी
और हम बिक रहे होते हैं
सामान की तरह
सुविधाओं के रूप में
हर घड़ी, 
हर लेन-देन, 
हर सौदे के साथ

बहुत घातक है
बाज़ार का प्रवेश
हमारी निजी ज़िंदगी में
घातक है बाज़ार का वर्चस्व
समाज पर
मानवता पर

कम्पनियों के बंद होने से
नहीं बंद होता है बाज़ार
क्योंकि उनकी भूख बंद नहीं होती
वह भूख, जिसका कोई अंत नहीं है
बदल जाता है
उन कम्पनियों का नाम और निशान (लोगो)
कभी कभी मालिक भी

सब कुछ सुचारु रूप से चलने के लिए
मात्र ज़रूरतों को पूरा करने के लिए
होना चाहिए बाज़ार
और व्यक्ति को करना चाहिए
ज़रूरतों का निर्धारण, स्वयं
ना कि बाज़ार को
(जैसा आज हो रहा है)

बहुत घातक है 
बाज़ार का वर्चस्व
जहां बाज़ार हमारी ज़रूरतों का निर्धारण करे
यही परिस्थिति
हमें बना देती है सामान
बाज़ार में बिकने वाला सामान
और आदमी 
बाज़ार हो जाता है

बहुत ख़तरनाक है
आदमी का
मनुष्य का
बाज़ार हो जाना

उतना घातक नहीं है
चाइना का बाज़ार में होना
जितना उसका बाज़ार के माध्यम से
हमारे जीवन में घुसना
जो हमको सस्ता बना रहा है
मूल्यों में भी
और मानसिकता में भी

लाइक्स, सब्सक्रिप्शन और कॉमेंट
पर निर्भर बाज़ार
कर रहा है कमज़ोर
सामाजिक ढाँचे को
प्रशंसा का व्यापार हो रहा है यहाँ
कितनी बाज़ारू हो गई है
पसंद-नापसंद
यही है
मनुष्य का बाज़ार हो जाना

टीआरपी से मापा जा रहा है
विज्ञापनों का मूल्य
और विज्ञापनों के बल ही
चल रहे हैं चैनल
जो हमारी सोच पर हो रहे हैं हावी
सब कुछ परोसा जा रहा है
भूख बड़ाई जा रही है
ज़बरदस्ती, सुचारु रूप से  
और उसे बताया जा रहा है
माँग में संशोधन की प्रक्रिया
उधारी से बढ़ाया जा रहा है
पूर्ति को,
औद्योगिक व व्यावसायिक गतिविधियाँ
ऋण केंद्रित होती जा रही हैं
और गगनचुंबी कार्यालयों में
गुणा-गणित चल रही है

समाचारों का बाज़ार है
जहां बाज़ार का समाचार
पीछे छूट गया दिखता है
न्यूज़ चैनल धीरे-धीरे
व्यूज़ चैनल बनते जा रहे हैं
निष्ठा बिक रही है
सत्ता और सत्तू दोनों
बाज़ार में हैं
विज्ञापन, समाचार और बाज़ार
सब टीआरपी नियंत्रित कर रही है
और टीआरपी बिक रही है
ख़रीदी जा रही है

बाज़ार में
भाव का निर्धारण
भावनाएँ कर रही हैं
और मानवीय भावनाओं से
खेला जा रहा है
खुलेआम
भावनाओं का हो रहा है
व्यापार
और मदारी बना बाज़ार
मनुष्य को 
बंदर की तरह 
अपनी ढपली की धुन पर
नचा रहा है

कहाँ है स्वतंत्र बाज़ार
कौन स्वतंत्र है
इस बाज़ार में
विकल्पों की उपलब्धता की आड़ में
फ़्रीट्रेड का बनाया जा रहा है मज़ाक़
और पूंजीवाद की सार्वभौमिकता
की पूजा की जा रही है

व्यवस्था
विपणन से विघटन की ओर जा रही है
और मौद्रिक मूल्यों द्वारा प्रदर्शित प्रगति
एवं आर्थिक विकास में लिप्त नीतियाँ
दूर ले जा रही हैं 
व्यक्ति की सोच को
मानवीय मूल्यों से

सकल घरेलू उत्पाद यानि जीडीपी 
मानो ऐसा मापक हो गया हो
जिसके अभाव में
विकास की परिकल्पना अधूरी हो
भलीभाँति यह जानते हुए कि
जीडीपी और असमानता का सहसंबंध
बहुत पुराना है
सबकुछ अर्थ-केंद्रित
जीडीपी केंद्रित
क्यों हो रहा है

जीडीपी 
विलियम पेटी, एडम स्मिथ और   
साइमन कुजनेट्स 
के माध्यम से यहाँ तक पहुंचते-पहुंचते
अपने मूल रास्ते से 
भटक गई सी प्रतीत होती है  

गरीब की ग़रीबी
और अमीर की अमीरी
जीडीपी केंद्रित नीतियों
का ही परिणाम है, जो
श्रम, तकनीक व उत्पादकता
से कहीं अधिक
महत्वपूर्ण दिखाई दे रहा है

बाज़ारवाद पूँजीवाद के साथ बैठा
मना रहा है, अठखेलियाँ
और समाजवाद कराह रहा है
समष्टिवाद पर व्यक्तिवाद
हावी हो रहा है
बदल रही हैं परिभाषाएँ
बाज़ार व वाणिज्य की
सम्बन्धों का बाज़ारीकरण हो रहा है
और गणकों, माणकों व मापकों में
लिप्त बाज़ार
सामाजिक सम्बन्धों को मज़बूत
करने की जगह
मजबूर होने की बन रहा है
वजह

कई बार लगता है
कहीं कोरोना
इस बाज़ारवाद की उत्पत्ति तो नहीं
अपने नियंत्रण को 
और अधिक बढ़ाने की लड़ाई
वर्चस्व बनाने व जताने की लड़ाई
जहां मनुष्य का जीवन दांव पर हो
जहां राष्ट्रों की लड़ाई
अर्थ-केंद्रित हो
और सब कुछ
बाज़ार के इर्दगिर्द निर्धारित हो
वहाँ कुछ भी सम्भव है

बाज़ार का वर्चस्व
ख़तरनाक होते हुए भी
सबको लुभा रहा है
भविष्य को 
और घातक बना रहा है
और सुद्रढ़ सा दिखा रहा है

दिखना, दिखाना और होना
सब बाज़ार केंद्रित हो गया लगता है

हेगेल के ईश्वर पर आज भी
नित्शे हंस रहे हैं
सात्रे मुस्करा रहे हैं
और
नोम चोम्सकी
शक्तिशाली पूँजीवादी व्यवस्था पर
कटाक्ष कर रहे हैं
उत्तर आधुनिक व्यक्तिवादी सोच
समष्टिवाद पर हावी हो रही है
और बाज़ार से निर्मित
पूँजीपति
आज भी उठा रहे हैं फ़ायदा
मज़दूर की मजबूरी का
बाहर की मज़बूती
अंदर की कमजोरी
को और बड़ा रही है

मुझे अकबर इलाहाबादी याद
आ रहे हैं
दुनिया में हूँ 
दुनिया का तलबगार नहीं हूँ
बाज़ार से गुज़रा हूँ 
ख़रीदार नहीं हूँ

बाज़ार
बसुधैव कुटुम्बकम् पर आधारित 
समष्टिबाद की
खोद रहा है जड़ें
और न जाने कैसी
उर्वरक यूरिया
इन जड़ों में डाली जा रही है
अच्छी फसल के
बाज़ारू आश्वासनों में सराबोर
आँख मींचे, दांत भींचे
सब कुछ देख रहे हैं
जैसे हमनें देखा है
हरित क्रांति को 
और देख रहे हैं 
उसके दीर्घकालिक प्रभावों को  

कृत्रिम बुद्धिमत्ता
कृत्रिम तकनीक
कृत्रिम मानव
प्लास्टिक करन्सी
प्लास्टिक मुस्कान
कृत्रिम बाज़ार
कृत्रिम माँग

कृत्रिमता में
घोर रूप से घिरा मनुष्य
कितनी दूर जा रहा है
वास्तविकता व स्वाभाविकता से 
अत्यंत कठिन है
इसकी गणना कर पाना 
सभी मापकों से परे है
इसका गणित

कृत्रिमता के जाल में फ़ंसा मानव
अपनी जड़ों से हो रहा है दूर
और स्वयं से कर रहा है
पलायन
खुद का खुद से पलायन
उसकी ख़ुद्दारी पर
एक बड़ा प्रश्नचिन्ह लगा रहा है
और यह
एक भयावह भविष्य 
के दे रहा है संकेत 

बाज़ार पूरी तरह मनुष्य में 
कर चुका है प्रवेश
मनुष्य बाज़ारमय हो रहा है
यक़ीन कीजिए
बहुत ख़तरनाक है
आदमी का
बाज़ार हो जाना