Thursday, November 28, 2013

सोच सकता हूँ

मैं सुनाता आ रहा हूँ 
गीत कविता
सुन जिसे क्यों सो गया है
कुल जहाँ संकुल यहाँ 
क्यों आँख खोले सो गया है
सत्य आशय झूठ संशय
एक आशा एक भाषा
सोच सकता हूँ मैं इतना
तन बदन अब रो गया है
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Friday, November 15, 2013

मोबाइल की सीख

क्या सोचता होगा
बेचारा मोबाइल

सुनता है सबकी कहानी
उसको संप्रेषित करता है
चुन लिए गए लोगो को
मोबाइल पहचानता है
उसके मालिक के
विभिन्न रूपों को
मालिक की
हर क्षण परिवर्तित
भाषा व शैली
भाव व बोली

मोबाइल परेशान होता है
कभी-कभी हँसता है
जोर से
कभी-कभी क्रुद्ध होता है
सर पीटता है
मालिक को गाली देता है
मालिक की
निष्ठा के क्षणिक बदलाव पर
चुप रहता है
(बोलने की
प्रबल इच्छा होते हुए भी)

मोबाइल
लड़ाई का कारण बनता है
लड़ाइयों को कई बार
समाप्त भी करवाता है
कितनी ही बार झूठ सहता है
बहानों को संजोता है
दोस्त और दुश्मनों को
अपने में सुरक्षित करता है
अट्टहासों पर रोता है
बेबुनियाद अश्रुओं पर हँसता है

मोबाइल का
चेतन व अवचेतन एक है
किसी भी भेद से परे
नेटवर्क होते हुए भी
नेटवर्क न होने का बहाना
घर में होते हुए
बाहर होने का बहाना
मीटिंग में न होते हुए भी
मीटिंग में होने का बहाना
आदि इत्यादि
न जाने कितने
सच दिखने वाले झूठ 
सहता है

मोबाइल फिर भी
नहीं रखता है
अपने मालिक को
अपने स्पर्श से बंचित
उसकी परम श्रद्धा पूज्यनीय है
वन्दन योग्य है

मैंने कई मनुष्यों को देखा है
मोबाइल की भांति
करते व्यवहार
मोबाइल की भांति
करते स्वीकार
सत्य-असत्य सब
मोबाइल की भांति
करते ग्रहण सबकुछ
अपनी परम श्रद्धा
व विश्वास
अपने मालिक के प्रति
क्या हम कुछ
पूर्ण अथवा आंशिक रूप से
सीख सकते है
इस सीधे-साधे-सच्चे
मोबाइल से

Friday, November 8, 2013

भ्रम - द्रष्टिभ्रम

जैसा दीखता है
वैसा होता नहीं है
व्यक्ति 
व्यवस्था
व्यथा

वो जैसे दीखते हैं
उनको पता है
वैसे नहीं हैं वे

जैसे भी हैं वे
वैसे दीखते नहीं है

कई बार
रुके हुए
चलते दीखते हैं
कई बार
चलते हुए
रुके हुए
दिखाई देते हैं

व्यवस्था अच्छी दीखती है
अच्छी न होते हुए भी
या फिर व्यवस्था
अच्छी नहीं दीखती है
क्योंकि
हमारे पूर्वाग्रह
हमें वह दिखाते हैं
जो हम देखना चाहते हैं

स्वस्थ दीखने वाला व्यक्ति
आंतरिक रूप से
कितना अस्वस्थ होता है
नहीं दीखता है हमें

एक प्रश्न
क्या
व्यक्ति
व्यवस्था, व
व्यथा
हमको ख़राब
या
अच्छी दीखता
या दीखती है
क्योंकि हम उसको
वैसा देखते हैं
जैसा देखना चाहते हैं

हमारा चाहना ही तो
हमारा चश्मा होता है
जिसे हम प्रायः
अपनी सुविधानुसार
पहनते
या बदलते हैं
यह कोई दृष्टिभ्रम नहीं होता.