Monday, February 24, 2014

तमाशबीन

हताश से दीख रहे हैं
ये हरे पेड़
बनती देख बिल्डिंगें
अपने आस पास


उन्हें पता है
उनके
इतने फलदार होते हुए भी
उनके प्रति
कोई नहीं
व्यक्त करेगा अपनी सहानुभूति

उनके पालनहार ही बनेंगे
उनके भक्षक
उन्हें देख निहत्था व लाचार
उनकी भावभीनी विदाई की
करेंगे तैयारी

तोड़ दिए जायेंगे
मकड़ी के जालों से दीखते
शाखाओं पर
सवार रिश्ते
हरी-हरी पत्तियों पर भी
नहीं खायेगा कोई तरस

काटते जायेंगे
पेड़ों के पेड़

बागों के बाग़

और हम सब
बने रहेंगे तमाशबीन
बस में
सड़क पर
अस्पताल में
घर में
कार्यालयों में
हर जगह
बैसे ही जैसे
दिल्ली की
सोलह दिसंबर दो हज़ार बारह
वाली रात
दोहराई जा रही हो
दामिनी, निर्भया
या
ज्योति के
नाम में गुमनाम।

(3 जनवरी 2014, रात्रि 12 बजे, सुभाष नगर बरेली)

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