देखा है
देख रहा हूँ
और
देखूंगा
भारतीयों की भारतीयता
भारत के बाहर.
रूड़ियाँ परम्पराएँ व
सामाजिक मूल्य.
आकाश से साक्षात्कार करते पहाड़
रुड़ियों की भांति
तीब्र गति से बहतीं नदियाँ
घाटियों के मध्य
मूल्यों की भांति
मूल्यों के साथ.
कहाँ से कहाँ
शायद विरोधाभास ही
तय करेगा
विकास की गति.
भूटान
यानी - भूमि पर चट्टान
भारतीयों की आन
और
अभार्तियों की शान.
थिम्पू
राजधानी का रूप
कांग्लुंग
सभ्यता स्वरुप
थिम्पू के लोग
भारतीयों का संयोग
कांग्लुंग कहानी
पानी काला या काला पानी
जब तब बरसात
कहती अपनी बात
सूर्य प्रकाश
दौड़ता आकाश.
कान्ग्लुंग और थिम्पू
किसको बैराग
अपनी-अपनी डपली
अपना-अपना राग
दो समानांतर रेखाएं
अपनी-अपनी व्यथाएं
तुलनात्मक अपवाद
समानताओं की याद
भारतीयों का रूप
बदलता स्वरुप
समय के अनुसार
मूल्यों की हार
आखिर कब तक
चलता रहेगा
आत्मसमर्पण के बाद
आत्महत्या का प्रयास
देखा है, देख रहा हूँ और देखूंगा...
(Banquet Hall, Thimphu: 10:40 AM, 6th April 1996 - during Shercol Indian Teachers' Orientation Programme)
दो सामान से संस्कृतियों का सुन्दर और संतुलित वर्णन और विवेचना.. अच्छी कविता !
ReplyDeleteआपकी रचना वाकई तारीफ के काबिल है ........विजय जी..
ReplyDeleteकहाँ से कहाँ
ReplyDeleteशायद विरोधाभास ही
तय करेगा
विकास की गति.
..........गजब कि पंक्तियाँ हैं ...
• इस कविता में आपकी वैचारिक त्वरा की मौलिकता नई दिशा में सोचने को विवश करती है।
ReplyDeleteबहुत निराला और बेहतरीन अंदाज !
ReplyDeleteसमय के अनुसार
ReplyDeleteमूल्यों की हार
वास्तविकता हैं