Wednesday, July 25, 2012

मेरा शहर - बरेली

चलते हैं घर से काम को उठते ही पहर को
सपने सजाये आँख में जातें हैं शहर को

कंधे पे देख कांवर डर कर दुबक गए
किसकी नजर  लग गई है मेरे शहर को

मंदिर मे औ' मस्जिद में औ' गिरजे मे औ' गुरुद्वार
बैठा है सबका मालिक देखे है कहर को

सुनसान है सड़क न रोजी है न रोटी
मजदूर बिचारा तो बस ढूँडें है ज़हर को

कुछ लोग तो बस व्यस्त हैं अखबारबाजी मे
सेकें हैं अपनी रोटिया सोचे न शहर को

क्या होगा अगर पानी सर पे चढ़ गया
नदियाँ न समंदर न कोई देखेगा नहर को

वो उर्स वो चुन्ना मियां वो आग और वो नाथ
आँखों ने कह दिया है अब न देखो शहर को

इन गर्म हवाओं ने बहुत कुछ है कह दिया
लगता है अबकी नाथ न पूछेगा शहर को

25 July 2012.... बरेली .... (पिछले तीन दिनों से बरेली मे कर्फ्यू लगा है)

Thursday, July 19, 2012

पगडण्डी


देखे
सीमा लांघते
द्वितीय व तृतीय द्वार के मध्य

सीमा लांघते
पगडंडिया बनाते
सीना तान
प्रशासनिक कार्यालय के सामने
द्वितीय व तृतीय द्वार के मध्य
सीमा लांघते

क्या इस कार्यालय के भीतर भी
सीमाओं को लांघा  जाता है

क्या वे ही बाहर भी
सीमा लांघते हैं
जो 'भीतरी' अनुभव
रखते हैं
भीतर बैठकर
सीमा लांघने का अनुभव

देखे
सीमा लांघते
पगडंडिया बनाते
या
पगडंडियों पर चलते
सीना तान

अनुभव व अभ्यास
के अनुरूप
अविरुद्ध

उनकी देखा-देखी
अब
उनके अनुभव
का प्रयोग
उनके कौशल
का प्रदर्शन
उनसे मित्रता
का फल
उनसे घनिष्टता
की पूँजी
उनका परामर्श
काम आ रहा है
सीमा लांघने के

अपवाद दीखता है
सीमा का
आदर व पालन
सीमा मे रहना

फिर - आखिर
क्यों होती हैं सीमाएं 
क्यों होते हैं नियम-क़ानून
आखिर
क्यों आवश्यक है
अनुशासन व अनुपालन

प्रभावी प्रशासन के लिए
समानता व न्याय के लिए
भेदभाव-रहित समाज के लिए
सुदृढ़ व्यवस्था के लिए

आखिर
फिर क्यों
लांघी जाती हैं सीमाएं 

द्वितीय व तृतीय द्वार के
होते हुए भी
क्यों एक मध्य द्वार का
जन्म होता है
क्यों बन जाती है
एक और पगडण्डी
एक साफ़-सुथरी सड़क के
होते हुए भी

मैंने देखा है
कई पगडंडियो को
सड़क मे बदलते
तथाकथित
समानता, न्याय व सुशासन
के लिए
उसकी प्रतिरक्षा
के लिए

मैं फिर सोचता हूँ
आखिर क्यों होती हैं सीमाएं 
यह जानते हुए
कि
सीमाएं लांघी जायेंगीं
छोड़ेंगी निशान
बनेगीं पगडंडिया
और फिर
पगडंडिया
एक सड़क का रूप लेंगीं

लांघी हुई सभी सीमाएं 
मान्य हो जायेंगीं
न्यायिक होंगीं
संवैधानिक होंगीं

मैं पूंछता रहूँगा
वही  प्रश्न
आखिर
क्यों होती हैं सीमाएं 

मैं
मूक मैं
देखता रहूँगा
लोगों को
सीमा लांघते
पगडंडिया बनाते
प्रथम-द्वितीय-तृतीय-चतुर्थ-पंचम 
द्वार होते हुए भी 
विशेषतः 
द्वितीय व तृतीय द्वार के मध्य
प्रशासनिक कार्यालय
के बाहर
भीतर
लगता है 
सीमा होती ही है 
लांघने के लिए

पगडंडिया
रहती हैं पतली
परन्तु 
सड़कें होती जाती हैं 
चौड़ी 
और चौड़ी.

18.7.12 - Shillong  - tomorrow is nehu foundation day.....

(inspired by seeing people crossing the boundary just infront of the administrative building, the footpath is quite visible)

Wednesday, July 11, 2012

मैं इतना सोच सकता हूँ - 5

25

मैं कविता को बनाता हूँ, मुझे कविता बनाती है
मेरी अनुभूति को अभिव्यक्त कर, शोभा बढाती है
मेरी कविता, मेरी भाषा, मेरी दुनिया, मेरी आशा 
मैं इतना सोच सकता हूँ,  मुझे हरपल जगाती है।

26

मुझे साहित्य प्यारा है, ये जीवन का सहारा है 
मगर वाणिज्य रोटी है, इसी ने घर संभाला है 
मेरी क्षमता, तेरी ममता, मेरी भाषा, मेरी आशा, 
मैं इतना सोच सकता हूँ, यही जीवन हमारा है. 

27

मैं बच्चों में जगाता हूँ, जो बूढ़़े छोड़ देते हैं,
बदलते मूल्य बच्चों को, भटकता मोड़ देते हैं 
अजब दुनिया, अजब धंधे, अजब आंखें, सभी अंधे 
मैं इतना सोच सकता हूँ, भटककर जोड़ लेते हैं। 

(10 May 2012, 11 PM, Shillong)

Sunday, July 8, 2012

अभ्यास

24
मैं जब आंखें झुकाता हूँ, उन्हें आभास होता है,
खरा खोटा सुनाते हैं, विरोधाभास होता है,
मेरी ताकत, मेरा परिचय, मेरा चेहरा, मेरा दर्पण
मैं इतना सोच सकता हूँ, यही अभ्यास होता है।
7 May 2012, Shillong