Monday, November 3, 2014

हार-जीत

मैं लड़कर जीतता हूँ
जीतकर लड़ता नहीं हूँ अब
खड़ा हो सोचता हूँ
भीगकर पढता नहीं हूँ अब
अजब सी जीत है
सांसत में अक्सर छोड़ देती है
मैं इतना सोचता हूँ
हार मे ही जीतते हैं सब
==================

Sunday, October 12, 2014

सोच


वो जैसा है नहीं मुझको
दिखाई देता है वैसा
मेरा चश्मा मुझे आगाह
करता है कपट कैसा
सफल जीवन नहीं यदि
कष्ट पीड़ा साथ जीवन में
मैं इतना सोचता हूँ
क्यों दिखाई देता बस पैसा

================

Wednesday, September 24, 2014

यात्रा

मैं चलकर सोचता हूँ
सोचकर चलता नहीं हूँ अब
मेरी यात्रा में शामिल
मित्र दुश्मन भाई बंधु सब
मेरी भाषा संभल जाए
मेरा हर पग संभल जाए
बस इतना सोचता हूँ
अब चलूँ सोचूं विचारू सब
================


Thursday, September 11, 2014

आशय

नियम क़ानून अनुशासन
सभी अपवाद लगते हैं
जो आशय हो सही संगत
सही संवाद सजते हैं
मेरा दर्शन मेरे मित्रों को
क्यों कल्पित ही लगता है
बस इतना सोचता हूँ
क्यों नहीं संवाद करते हैं
=======================

Friday, August 29, 2014

सपना

मैं ढोना चाहता हूँ बोझ
सपनों का इन कन्धों पर
किसी को कष्ट में देखूं
तो खोलूं बाहें बन्दों पर
किसी की ईर्ष्या को
प्रेम से जीतूँ यही सपना
बस इतना सोच सकता हूँ
लगा विराम धंधों पर
=======================

Friday, August 22, 2014

मैं इतना सोच सकता हूँ

हम अपनी बाजुओं के जोर
को अब आजमाएंगे
बहुत प्रतीक्षा करने में
आंसू सूख जायेंगे
अजब खेमो में बंटकर
आप हम क्यों दूर होते हैं     
बस इतना सोच सकता हूँ
उन्हे उनके रुलायेंगे  
============================

Saturday, August 16, 2014

रास्ते

ये टेढ़े रास्ते लेकर
मुझे मंजिल दिलाएंगे
मेरे हर कृत्य को
सम द्रष्टि देकर भूल जायेंगे
मेरी यात्रा मुझे जीवन परख
मे व्यस्त रखेगी
बस इतना सोचता हूँ
ये कदम पत्थर सजायेंगे
========================

Friday, August 8, 2014

कर्मबल

कर्मवीरों अब उठो देखो खिली सी धूप
ह्रदय खोलो प्रेम की धारा धवल हो रूप
बाजुओं की वीरता का अंत होता काल
ज्ञान के झर बीज पूर्वज बो गए अब ढाल

अब नहीं विश्राम चाहे बीतें शत प्रहर
अब दिशा पकड़ो भुलाकर ऊर्जा का ज्वर
काम का अम्बार पथ से ना करे भ्रमित
प्रण विनय परिश्रम प्रणय प्रतिमूर्ति अमित

कौन बैठा किस भवन किस डाल किस तरुवर
तुम तुम्हारी दृष्टि तुम्हारे तीर तुम्हारे कर
तुम उजाला बन करोगे रौशनी हर घर
याद रखना शाम का ढलना नहीं पथ पर

धूप ओझल हो भला तुम कर्मबल देखो
शाम ढल जाए प्रकृति का रूप कल देखो
चील कौए कीट कीड़े सब प्रकृति के जीव
एक मानव ही जुटा है अभिग्रहण निर्जीव

(प्रो० एस के मिश्र द्वारा निम्न कविता मिली___ उसके उत्तर में उपरोक्त पंक्तियाँ भेजी)

शाम सहसा ढल गयी है 

धूप ओझल हो गयी है । 

जो जहाँ हैं, लौटने को हो रहे तैयार 
काम  का वैसे पड़ा है सामने अंबार 
अब करेंगे, अब करेंगे, हो गयी दुपहर 
सोचने में और गुजरा एक अन्य प्रहर । 

डूबने को जा रहा मसि-सिंधु में संसार  
मच्छरों की फ़ौज़ है उन खिड़कियों के  पार 
हैं वहीं  टकरा रहे चमगादड़ों के पर 
गूँजते हैँ हर तरफ बस झींगुरों के स्वर । 


ऊँघते उल्लू जमे हैँ शाख पर हर ओर 
उस तरफ से आ रहा है शावकों का शोर 
दूर तक दिखता नहीं है रौशनी  का श्रोत 
कर सकेंगे राह रौशन ये निरे खद्योत ?

शाम सहसा ढल गयी है । 

------------
सुधाँशु

Friday, August 1, 2014

मेघालय में बरसात

क्यों हो गई हो तुम
इतनी निर्दयी
तुम्हारे स्पर्श को यह धरती
व 
उसपर रहनेवाले
तरस रहे हैं
सोचो क्या होगा
तुमपर आश्रित जीवों का
लगता है
तुम्हारी संवेदना शक्ति
समाप्ति की ओर अग्रसर है
तुम्हारा शुष्क व्यवहार
सभी को
शुष्क करता जा रहा है
धरती का ताप चड़ाव पर है
आकाश की गड़गडाहट
कुछ आस बंधाती है
परन्तु एक तुम हो कि
अपने प्रण पर अडिग दीखती हो
संभवतः तुम
तुमपर आश्रित जीवों की
परीक्षा ले रही हो
उनके संयम की परीक्षा
भलीभांति यह जानते हुए कि
कोई भी
तुमपर निर्भरता से परे नहीं है

तुम्हारा अडिग व्यवहार
मुझे विचलित कर रहा है

यह वह नगरी है जहाँ
तुम्हारा वास होता था
तुमसे इस नगरी की पहचान थी
इस नगरी में तुम्हारी जान थी
तुम इस नगरी की शान थी

मेरी स्मरण शक्ति
मुझे तुम्हारी
ममताभरी कहानियां याद करने को
कह रही है
पूर्वजों द्वारा तुम्हारा मार्मिक वर्णन
तुम्हारी करुणामयी आँखें
सब कुछ
मेरी स्मृति को चुनौती दे रहा है
तुम क्यों भूल गयी हो
इस नगरी की राह
इस नगर से क्यों तुमको
नहीं रहा प्यार
या
तुम्हारा यह रूप
किसी प्रतिशोध की
अभिव्यक्ति है

इस अप्राकृतिक समय में
तुम भी अप्राकृतिक हो जाओगी
मुझे ज्ञात नहीं था

मेरी सारी प्रार्थनाएं
व्यर्थ लगती हैं मुझे
तुम टस से मस
होने को तैयार नहीं दीखती हो

सोचो एक क्षण
हमारे पारस्परिक संबंधों के बारे में
हमारी पारस्परिक निर्भरता के सन्दर्भ में
मुझे कोई विकल्प नहीं सूझ रहा है अब

हे इंद्र देव!
कुछ कृपा करो

Thursday, July 17, 2014

पहिये

हम अब थक चुके हैं
पंचर हो या न हो
हमे रुकना ही पड़ेगा
बिना मुकाम पर पहुंचे


या फिर
देश

संस्थान की तरह
चलते रहेंगे
जुगाड़ से
राम भरोसे
भोले शंकर की कृपा से
जुगाड़ से जोड़े हुए
पंचरों के सहारे
फिर चाहे तपी धूप हो
या
वर्फ से दूधिया सड़क
हमारा काम चलना ही तो है
यही सब सिखाया गया है हमको
चरैवेति-चरैवेति


और तुम
जो मालिक समान
लदे हुए हो हम पर
बिना किये लिहाज
हमारी उम्र का
हमारे कद का
(कद जो कभी हमारा अपना न हो सका)


मानो
हमारी वेदना को जानो
हम अब थक चुके है
हमे चाहिए विराम
यदि पूर्ण नहीं
तो कम से कम
अर्धविराम


कोई नहीं जानता है मुकाम
तुम फिर क्यों चला रहे हो हमे
तुम क्यों नहीं देख पा रहे हो
रिस्ता लहू
तुम संभवतः
जानकार भी अंजान बनने का
कर रहे हो ढोंग


हम पहिये
देखना चाहते हैं तुमको
बनते हुए पहिये
और करना चाहते हैं
तुम पर सवारी
तुमको जताना चाहते हैं
मुकाम पर पहुंचने के लिए
कभी न कभी
हम सभी को बनना पड़ता है
पहिया
और हम इस पूर्वाग्रह से ग्रसित रहते हैं
कि रौंदते रहेंगे पहियों को
बिना किसी डर के
उनके पंचर होने की
लेशमात्र भी आशंका के परे
इसीलिए कभी नहीं पहुँचते हैं
अपने मुकाम पर
जीवन भर चलते रहने के बाद भी


समझो हमारी पीड़ा
हम अब थक चुके हैं
पंचर हो या न हो
हमे रुकना ही पड़ेगा
बिना मुकाम पर पहुंचे


(प्रो० एस के मिश्र द्वारा निम्न कविता मिली___ उसके उत्तर में उपरोक्त पंक्तियाँ भेजी)


पहिये


हम टायर लगे पहिये हैं
जो अपने फेंफड़ों में दम रोके
जेठ की धूप में
तवे सी जलती ऊबड़ खाबड सड़कों पर दौडते
गाड़ी को सर पर लिए
चार गधों को
जिसे सवारी कह्ते हैं
मुक़ाम के क़रीब तक ले जाने के लिए ही
जी रहे हैँ ।


नहीं जानते, कब, कहाँ और किस वज़ह से
हम में से एक
पंक्चर हो जाएगा,
दम तोड़ देगा
बीच सड़क पर
वहां
जहाँ से सवारियों के मुक़ाम
बहुत, बहुत दूर हों
और
पंक्चर बनाने वाले की दूकान
ढूंढे न मिलती हो ।


प्रभु, ऐसा न होने देना
शंकर, तेरा सहारा
बुरे का हो मुँह काला
फ़िर मिलेंगे ।
-------------
सुधाँशु

आंखें

मेरी आंखें झुकेंगी कृत्य
यदि संहार का होगा
मेरी आंखें उठेंगी कृत्य
यदि ना प्यार का होगा
सभी को आँख की भाषा
समझनी चाहिए मित्रो
बस इतना सोचता हूँ
कब यही संसार का होगा

====================


Thursday, July 3, 2014

भवन प्रतीक्षा में है

भवन का द्वार
प्रतीक्षा में है
कोई आए
उस पर लगी जंग हटाये
उसको खोले, सहलाये
उस पर जमी धूल पर
अपने निशान लगाये
अपनी उपस्थिति पंजीकृत कराये
कोई आए

भवन का बगीचा
प्रतीक्षा में है
कोई आए
मिटटी खोदे
क्यारियां बनाये
कोई आए
आशा के बीज बोए
फूलों से इस बगीचे को सजाये
कोई आए

किन्ही निर्देशों के अभाव में
भवन के माली
हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं
बीज और खाद की प्रतीक्षा में
कोई आए

भवन की दीवारें, दरवाजे व खिड़कियां
अपनी विवशता में रो रही हैं
प्रतीक्षा कर रही हैं
किसी नवीन स्पर्श की
चटकनियां रुष्ट हैं
उनको खोलना आसान नहीं होगा

भवन के पर्दे रोष में हैं
किसी भी प्रकार के वायु प्रबाह का
कोई प्रभाव नहीं है उन पर
खिड़कियों-दरवाजों ने
उनको जकड़ रखा है
(विश्वविद्यालयी नियमो-अधिनियमों की भांति)
परदे भूल गए हैं हिलना

भवन प्रतीक्षा में है
कोई आए

भवन की चल संपत्ति
कुछ डरी हुई है
चल अलमारी, सोफा, कुर्सी, मेज
इत्यादि सब
कुछ डरे हुए हैं
कहीं भवन का नया मालिक
उनको तिरस्कार की दृष्टि से न देखे

भवन में
किसी के न होते हुए भी
भवन की गाड़ी चल रही है
विश्वास कीजिये
भवन की गाड़ी चल रही है
संस्थान की गाड़ी भी चल रही है
मालिक की अनुपस्थिति में भी
भवन की गाड़ी चल रही है
परन्तु फिर भी
भवन प्रतीक्षा में है
कोई आए

भवन परिसर में लगे पेड़
किसी प्रभाव
व अभाव से परे
मस्त हैं
झूम रहे हैं
न तो इन्हें प्रतीक्षा है
मालिक की
न ही किसी माली की
और न ही उनका अस्तित्व
खतरे में है
(पौधों की तुलना में)
पेड़, पेड़ है
प्रकृति पर निर्भर पेड़
किसी भी मानवीय स्पर्श की
चेतना से परे

रौंदा तो पौधों को जाता है
बदल दिया जाता है
मौसमानुसार
अच्छे फूलों की आशा में
मौसमी फूलों की आशा में
बहुत से पौधों को
नहीं बनने दिया जाता है पेड़
उनमे पेड़ बनने की पूरी क्षमता
होते हुए भी
माली मात्र
मालिक के निर्देशों का पालन करते हैं
स्वेच्छा के विरुद्ध

मिटटी प्रतीक्षा में है
कोई आए

इतना बड़ा भवन
कितना छोटा हो जाता है
बड़े-बड़े पेड़ों के होते हुए भी

भवन प्रतीक्षा में है
कोई आये
इसको
अपनाये
सजाये
महकाए
इसका हो जाये
कोई आए

भवन अनभिज्ञ है
कि
भवन की गाड़ी चल रही है

(पिछले एक वर्ष से किसी स्थाई कुलपति के अभाव से विश्वविद्यालय में वर्तमान में चल रहे गतिरोध व महत्वपूर्ण निर्णयों में हो रहे विलम्ब को समर्पित इस कविता का जन्म कुलपति निवास के सामने से निकलते चलते हुआ) 

Saturday, June 21, 2014

फूल और मिट्टी

घर में फूल
फूलों में घर 
फूलों की खुशबू 
खुशबू के फूल
फूलों से रिश्ते
रिश्तों से फूल 
रिश्तों सी शाखाये 
शाखाओं से रिश्ते

लकड़ी पर कन्धा
कंधे पर लकड़ी
जड़ों से पेड़
पेड़ों से जड़ 
मट्टी में जड़
जड़ में मिट्टी 
मिट्टी में बीज 
बीज से जड़
जड़ से पौधा 
पौधे से फल-फूल 
पौधे से पेड़
पेड़ से फल-फूल 
पेड़-पौधों से लकड़ी 
लकड़ी से आग
आग से मिट्टी

मिट्टी का मानव
मानव की मिट्टी

फूलों से कीट
कीट से फूल
फूलों से बगिया
बगिया से फूल
फूलों से रंग
रंगों से फूल
फूलों से शूल
शूलों से फूल

पानी में मिट्टी
मिट्टी में पानी
पानी के बादल
बादल से पानी
पानी से मिट्टी

मिट्टी का मानव
मानव की मिट्टी

Friday, June 6, 2014

आभास

कबूतरों और बन्दरों
गोर्रैयों और गिलहरियों
चूहों और छछुन्दरों
के जहाँ थे आवास
वहां मानव से दीखते
जानवरों ने
किया है अतिक्रमण
बना लिए हैं
सुन्दर से दिखने वाले
अपने आवास

घुस गए हैं उनके
घरों में
घोसलों में
बिलों में
अपने शक्ति व
धन बल से
ज्ञान बल की अनुपस्थिति में
या
होते हुए भी
उसका प्रयोग किये बिना

मानव
करने लगा है व्यवहार
इन सभी पक्षियों
व जानवरों की तरह

अब देखना है
कब पक्षी व जानवर
करेंगे
मानव सा व्यवहार
और
अपने शक्ति व ज्ञान बल से
कर देंगे बेदखल
इन मानव से दीखते
जानवरों को
अपने आवासों से

मेरा आभास

मेरा आवास

Sunday, June 1, 2014

अर्थ

व्यर्थ है
सचमुच व्यर्थ है
अर्थ
अर्थ से होता है
अनर्थ
और
जब हम ढूँढते हैं
संबंधों का अर्थ
तो अर्थ ही है
जो व्यर्थ लगता है
जब अर्थ के लिए
हम सब छोड़ते हैं घर
फिर कुछ नहीं बचता
अर्थ के सिवाय
और
फिर भी हम सब
ढूँढते रहते हैं अर्थ
शब्दों के...

====================
उपरोक्त पंक्तियों को लिखने की प्रेरणा प्रो माधवेन्द्र पाण्डेय जी द्वारा अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस (10 मई 2014) के दिन फेसबुक वाल पर प्रकाशित निम्न पंक्तियाँ पड़ने पर हुई

कितनी दूर आ गया कि,
माँ के चेहरे की लकीरें भी ठीक से याद नहीं,
कैसे कहूँ ...हैप्पी मदर्स डे |

सुबह बात करते समय 
बेतरह खाँस रही थी माँ,
कैसे कहूँ सब ठीक है,
तेज धूप और फनफनाती लू में
चिलक रही है माँ की आँखें
तब इतनी शीतलता का क्या होगा
यहाँ शिलाँग में,
जब चलने फिरने में इतनी दिक्कत,
आने जाने में इतनी पीड़ा 
तो व्यर्थ है सब घोड़ागाड़ी,
कार,बंगला ...सब व्यर्थ है |

Saturday, May 24, 2014

प्यार व व्यापार


मुझको उनका पड़ोस भाता है
उनको मेरा पड़ोस भाता है
उनको व्यापार खींच लाता है
मुझको व्यापार ही सताता है
प्यार व्यापार हो नहीं सकता
प्यार दीवार हो नहीं सकता
सोच सकता हूँ बस यही अब मैं
प्यार व्यापार को बढाता है
=======================

Wednesday, May 14, 2014

ताश के पत्ते

ये सारे ताश के पत्ते
अजब जीवन बताते हैं
ये काले लाल फूलों में
बंटी दुनिया दिखाते हैं
कोई राजा कोई इक्का
कोई जोकर कोई छक्का
बस इतना सोच सकता हूँ
ये गिरकर ही जिताते हैं
===================

Monday, May 5, 2014

रतौंधी

मैं काला देखकर क्यों रंग
कुछ भयवीत होता हूँ
नहीं मालूम कारण क्यों
रंगों के बीज बोता हूँ
जो बोया वो नहीं रोपा
जो रोपा वो नहीं पाया
बस इतना सोच सकता हूँ
रतौंधी रोग रोता हूँ
==================

Wednesday, April 23, 2014

रिश्ते - 3

3

रिश्ते
उड़ चले
घोसलों से
दूर 
बहुत दूर 
ऊंचाइयों को छूने 
मोबाइल टाबरों से बंधने
उड़ चले
रिश्ते

Tuesday, April 8, 2014

रिश्ते - 2

2

रिश्ते
घोसलों से उड़कर
जा बैठे हैं
उन
बिजली, टेलीफोन, केबिल, जनरेटर
के तारों पर
जो छोटे-बड़े खम्बों पर
अव्यवस्थित से
दिखाई पड़ रहे हैं

रिश्ते
इन तारों पर
कुछ देर बैठते हैं
टिकते नहीं
टिक सकते भी नहीं हैं
इन तारों पर
करंट का डर है
और
घोसलें
लगभग आश्वस्त हो गए हैं
रिश्ते
संभवतः नहीं लौटेंगे
घोसलों में

रिश्ते
उड़ रहे हैं
हवाई जहाजो में
धरती से दूर
घोसलों से दूर
और-और की अपेक्षा में

रिश्ते
दौड़ रहे हैं
ट्रेनों में
बसों में
सड़कों पर

रिश्ते
दूर आ चुके हैं
बहुत दूर
अपने घोसलों से
और घोसले
व्यस्त हो गए हैं
बनाने में
नए रिश्ते

Monday, April 7, 2014

रिश्ते - 1

1

रिश्ते
द्वीप समान
सहते हैं
न जाने कितने ही थपेड़े
नदियों के
फिर भी खड़े रहते हैं
अटूट, अद्रश्य, अडिग
कितनी ही आयें
सुनामी या कटरीना

यही है
इन रिश्तों की सुन्दरता
किसी भी विवशता से परे
निश्छल
फेसबुकिया रिश्तों से बहुत अलग
प्रवाह की चिंता किये बिना

आखिर 
जीवन एक रिश्ता ही तो है
मनुष्य 
व 
प्रकृति 
के मध्य

Monday, March 31, 2014

मार्च का महीना

सेमीनारों का महीना 
पहने हारों का महीना  

बैनर पोस्टर का महीना
फ़ाइल फोल्डर का महीना 

पड़ते पर्चों का महीना
छपते चर्चों का महीना

आने जाने का महीना
ताने बाने का महीना

ऐसे वैसों का महीना
रुपये पैसों का महीना

खर्चों खातों का महीना 
जगती रातों का महीना

फर्जीवाड़ो का महीना 
बंद किवाड़ों का महीना 

खुदते गड्ढों का महीना 
लगते अड्डों का महीना 

खिलते फूलों का महीना 
चुभते शूलों का महीना 

Friday, March 21, 2014

जड़

देखो
नई नवेली
मांग भरी दुल्हन समान
सड़क
रंग भेद से परे
करीने से छोड़े गए
हाशिए के साथ

देखो
ध्यान से देखो
उसपर जहाँ-तहां
उगती झांकती घास
बुलडोज़र से
कुचले जाने के बाद भी

कोमल घास जीवंत है
मानो कह रही हो
सीधे-साधे मजदूर
कभी नहीं
खोदते हैं
काटते हैं
किसी की जडें
जब तक
न निर्देशित किया जाये
मालिकों के द्वारा
किसी की जड़ों को
खोदने
या
काटने के लिए

Wednesday, March 12, 2014

चश्मा

मैं जैसा चाहता हूँ देखना
वैसा चश्मा पहनता हूँ
मगर हर द्रश्य बेहतर हो
नहीं सकता समझता हूँ
मेरी आंखे मेरा चश्मा
मेरी आशा मेरी भाषा
बस इतना सोच सकता हूँ
क्यों न विकल्पों को समझता हूँ
============================= 

Thursday, March 6, 2014

ज़रूरी है

वसीम बरेलवी जी ने एक गजल लिखी थी जिसकी दो पंक्तियाँ इस प्रकार थी:

उसूलों पे जब आंच आए तो टकराना ज़रूरी है
जो ज़िंदा हो तो ज़िंदा नज़र आना ज़रूरी है 

इन पंक्तियों को कुछ दिन पहले शैलेश लोढ़ा जी ने एक कार्यक्रम मे सुनाया। तत्पश्चात संजय श्रोत्रिय ने फेसबुक पर, इन्हे अपनी वाल पर टांग दिया। पड़कर अच्छा लगा। मैं कलकत्ता से शिलांग आ रहा था... सो उसी बीच सोचा कितना कुछ है जो ज़रूरी है, सो निम्न पंक्तियों का जन्म हुआ।

1

हर जिन्दा दिल को दिल का हाल बतलाना ज़रूरी है
वो जो मुर्दों से सोये चैन से उन्हे चेताना ज़रूरी है
मैं आँखें खोलकर सोया वो जगकर आँख मीचे है
बस इतना सोचता हूँ क्यों नज़र आना ज़रूरी है

2

अगर कमजोर रिश्ते हों तो घबराना ज़रूरी है
दिखाई दे गलत रस्ता तो हट जाना ज़रूरी है
तु अपनी आँख केवल लक्ष्य पर रख मस्त होकर जी
बस इतना सोचता हूँ अब इक ठिकाना जरुरी है

3

नदी को पार करना है तो तैरना आना ज़रूरी है
जमी से उड़ रहे लोगो को यह बतलाना ज़रूरी है
वो चिड़िया खाके चावल उड़ गई मुझसे कहा इतना
जो हठ में जी रहे उनको यह समझाना जरुरी है

4

संभल कर चलना है तो पेट मे खाना ज़रूरी है
चलें जब तीब्र गति से तो कभी रुक जाना ज़रूरी है
वह घोड़ा अस्तबल से हिनहिना कर कह रहा इतना
अगर हो चैन से सोना तो घर आना ज़रूरी है


लिखी कविता को मित्रों तक पहुँचाना ज़रूरी है
किताबी ज्ञान अच्छा है हाँ माना ज़रूरी है
मगर क्या पुस्तकें ही ज़िन्दगी को राह देती हैं
सजग जीवन को जीवट तत्व से मिलवाना ज़रूरी है