24 मार्च 2019 को मैंने इसी शीर्षक से एक कविता पोस्ट की थी, एक मित्र ने अपनी टिप्पणी में यह तीन पंक्तियाँ प्रेषित कीं :
तृप्त सरिता बह रही थी जल तरंगों को लिए
दर किनारा कर किनारे दूर तक साहिल पे थे
दर किनारा कर किनारे दूर तक साहिल पे थे
मंज़िलें उनको मिलीं जो दौड़ में शामिल न थे
उपरोक्त पंक्तियों को आगे बढ़ाते हुए एक नई कविता की रचना हो गई -
तृप्त सरिता बह रही थी जल तरंगों को लिए
दर किनारा कर किनारे दूर तक साहिल पे थे
मंज़िलें उनको मिलीं जो दौड़ में शामिल न थे
नव किरण का तेज अपने में दिशा का ज्ञान ले
दे रहा था रोशनी सम्बन्ध कुछ शामिल न थे
मंज़िलें उनको मिलीं जो दौड़ में शामिल न थे
कुछ किताबी ज्ञान साझा कर सफलता के शिखर
पा कहां पाया कोई जब तक अथक काबिल न थे
मंज़िलें उनको मिलीं जो दौड़ में शामिल न थे
ढल रहा था सूर्य अपनी रोशनी को बांटकर
आंधियों के हौसले अवरोध के काबिल न थे
मंज़िलें उनको मिलीं जो दौड़ में शामिल न थे
यदि कदम को लडख़ड़ाने से बचा पाओ तो तुम
पा गए सब कुछ सकल जो स्वप्न में हासिल न थे
मंज़िलें उनको मिलीं जो दौड़ में शामिल न थे
[31 मार्च 2019, अजमेर दिल्ली शताब्दी एक्सप्रेस 7:30 शाम]
बहुत बढ़िया
ReplyDeleteव्यंग्य और कटाक्ष भरी प्रासंगिक रचना
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