Thursday, September 9, 2010

मेरी आंखें और चश्मा

आंखें क्या क्या देखती हैं?
चश्मे की आवश्यकता क्यों पड़ती है?
किस समय कौन सा चश्मा?

चश्मा
कभी देखने के लिए
कभी ना देखने के लिए
कभी लोगों को दिखाने के लिए -
            मैं सब-कुछ देख सकता हूँ
            या
            मैं कुछ नहीं देख सकता

कभी यह भी दिखाने के लिए कि -
             मैं क्या हूँ
             मै क्या नहीं हूँ
चश्मा -
सब कुछ देख सकता है
चश्मा -
कई बार आँखों को विश्राम देता है
कई बार उसकी नग्नता को भी
इसलिए कि समय पडने पर,
नग्न होने पर
साफ़ और स्वच्छ रूप से देख सके

चश्मा -
देखने की गति बड़ा देता है
कई बार
चश्मा सब कुछ देख सकता है
यदि इस आशय से पहना जाये
चश्मा कुछ नहीं देख सकेगा
यदि इस आशय से पहना जाये
महत्वपूर्ण है
आशय
जो बदल भी सकता है
समय के साथ
परिस्थितियों के साथ
आप देखना चाहते हैं
या नहीं?

नग्न आंखें देखती हैं
वह भी - कई बार
जो देखना नहीं चाहते.
कई बार
नहीं देख पाती हैं
जो देखना चाहते हैं.
नग्न आंखें - नग्न हैं
आशय के महत्व से परे
          नग्न आंखें क्या क्या देखती हैं
          नग्न आंखें सब कुछ देख सकती हैं
          सब कुछ देखती हैं
आंखें
झुकी हुई या उठी हुई
खुली या बंद
हंसती या रोती
कटी या फटी
शांत या अशांत
अपना कहना कहतीं हैं
अक्सर
चुप रहती हैं, शांत रहती हैं
अपना कहना कहती हैं
चीखती हैं, चिल्लाती हैं
अपना कहना कह जाती हैं
अक्सर
वाणी के बिना.

नग्न आंखें सब कुछ देख सकती हैं
सचमुच
काफी कुछ कह भी सकती हैं
वाणी के बिना.

आँखों की ध्वनि/आवाज
देखी जा सकती है - सुनी नहीं
अक्सर
देखना सुनने से अधिक
महत्वपूर्ण होता है.
विश्वास
देखने पर या सुनने पर - ?
नग्न आंखें बोलती हैं
अक्सर
वाणी के बिना.

अश्रु
आँखों का कहना कहते हैं
अपने समय पर बहते हैं
ख़ुशी मे हंसकर
दुःख मे फंसकर
बहुत कुछ सहते हैं
आँखों का कहना कहते हैं
एक माध्यम बनकर.

अश्रु का समय पर ना आना
किसी अभाव को प्रदर्शित करता है
उस व्यक्ति के मनोभाव को
चित्रित करता है
आंसुओं का समय पर ना आना
मौन रहकर
प्रयास करता है
कुछ कहने का
सब-कुछ सहने का
परन्तु
अश्रु का ना बहना
स्वयं एक माध्यम बन जाता है
कुछ कहने का
और कह जाता है
अक्सर
वाणी के बिना
प्रायः:
व्यक्ति करता है यही आशा
कैसे भी समझ सके
अश्रुओं की भाषा.

आंखें, चश्मा और अश्रु
चश्मा
आँखों पर
कई बार
अश्रुओं को आश्रय देता है
ना दिखा सके वह
जो दिखाना नहीं चाहती है
आंखें
ना कह सके वह
जो कहना नहीं चाहती हैं
आंखें -
आंखें
सब कुछ देखती हैं - देख सकती हैं
सब कुछ कहती हैं - कह सकती हैं
सब कुछ बोलती हैं - बोल सकती हैं
अश्रुओं की पीड़ा के परे
अक्सर
वाणी के बिना
शब्दों के बिना.

(28th Sept 1994, Room No 27, Sherubtse College, Kanglung, Bhutan, 4:20 PM)

9 comments:

  1. आंखें
    झुकी हुई या उठी हुई
    खुली या बंद
    हंसती या रोती
    कटी या फटी
    शांत या अशांत
    अपना कहना कहतीं हैं
    अक्सर
    चुप रहती हैं, शांत रहती हैं
    अपना कहना कहती हैं
    चीखती हैं, चिल्लाती हैं
    अपना कहना कह जाती हैं
    अक्सर
    वाणी के बिना.

    क्या खूब लिखा है आपने चश्मे पर...बहुत खूब

    http://veenakesur.blogspot.com/

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  2. नग्न आंखें सब कुछ देख सकती हैं
    सचमुच
    काफी कुछ कह भी सकती हैं
    वाणी के बिना.

    अच्छी पंक्तिया लिखी है .....

    हमें भी पढ़े :-
    ( खुद को रम और भगवन को भांग धतुरा ....)
    http://thodamuskurakardekho.blogspot.com/2010/09/blog-post_09.html

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  3. नग्न आंखें देखती हैं
    वह भी - कई बार
    जो देखना नहीं चाहते.
    कई बार
    नहीं देख पाती हैं
    जो देखना चाहते हैं.
    नग्न आंखें - नग्न हैं
    आशय के महत्व से परे

    इन कुछ पंक्तियों में आप ने बहुत कुछ कह डाला ।

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  4. बहुत उम्दा रचना.

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  5. आदरणीय विजय जी
    आपकी कविता "मेरी आँखें और चश्मा" पढ़ा.. और काफी देर तक आस्म्मान को या कहिये छत को देखता रहा.. समझ में नहीं आया कि किवता पढ़ी या कोई अनुभव हुआ.. चूँकि कविता लिखने की कोशिश में कविता को जीने और महसूस करने की कोशिश आदत में शुमार हो गई है.. सच कहू तो आज तक जब कभी भी.. काला.. पीला...सस्ता.. महगा... जैसा कैसा भी चश्मा पहना और नहीं पहना.. और उस समय क्या महसूस किया होगा.. क्या दिखाया होगा .. क्या छुपाने की कोशिश की होगी.. सब कुछ स्लाइड शो की तरह ए़क के बाद ए़क सामने आ गए... इस हैपोक्राईट दुनिया को चश्मा के बहाने ए़क दिर्ष्टि दे दी है.. विम्बो के माध्यम से बहुत ही गंभीर बात आपने कही है.. ए़क मनोवैज्ञानिक कविता है यह...
    सादर

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  6. Kyaa baat kahi hai de taali!!
    nirankar

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  7. अजय श्रोत्रियOctober 18, 2010 at 7:33 PM

    अच्छी कविता हैं

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