ख़रीदा,
खोला,
पड़ा,
बिछाया,
हाथ पोछा,
रगडा,
मोड़ा,
गेंद बनाया,
फेंका.
आंखें खिलीं,
एक आशा,
बच्चे झपटे,
एक ने पाया,
उठाया,
संजोया,
खोला,
चाटा,
उसमे अपना चित्र पाया.
एक रोष,
उसने उसके चिथडे किये,
जैसे वाक्यों से शब्द,
शब्दों से अक्षर,
सब अलग हो गए हों.
फिर उसको
तेज रफ़्तार से,
चलती ट्रेन के सामने
उड़ा दिया.
ट्रेन कुचल गई,
बढ गई आगे,
अपने गन्तव्य की ओर.
मैं सोचता रहा,
कैसा आज,
कैसा जागरण,
कैसा उजाला,
कैसा भास्कर,
कैसा नव-भारत,
कैसा हिंदुस्तान.
24 April 2011, Bareilly to Delhi (Intercity Express, 9:40 AM)
Very good expression.
ReplyDeleteThanks,
OP Singh
अख़बारों के नाम के साथ बढ़िया विम्ब रचा है आपने... सुन्दर कविता...
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