Tuesday, November 12, 2019
Saturday, June 29, 2019
मायका - 3
बिखरा नहीं होता
संगठित होता है
मां उसको
अपने हृृृदय के
बड़े पीतल के ताले में
बंद कर के रखती है
जिसकी चाबी
वो बहुत संभाल कर रखती है
कभी किसी को नहीं देती है
यह ताला
उतना ही मजबूत होता है
जितना उसका इरादा
उसका संकल्प
परिवार को एक कड़ी में
बांधे रखने का
और शनै शनै
जब नाती - नातिन,
पोते - पोतियां होते हैं
उनके सामने
धीरे धीरे ताले खुलते हैं
मां चाबी घुमाती है
सारा संगठित बचपन
मां की आंखों से
बच्चों की संवेदना तक
संप्रेषित होता है
धुलता है (मां की आंखों से)
खुलता है
बचपन मायके में
बिखरा हुआ नहीं
संगठित होता है
Saturday, June 15, 2019
मायका - 2
मायके में
हम सब
अच्छी सी
दिखने वाली दुनिया
की तलाश में
क्या बचपन था
रोटी पर घी था
दूध में चीनी थी
आम की खुश्बू
कितनी भीनी थी
अब
कितना कुछ फीका है
जिंदगी जीने का
यही सलीका है
यह ससुराल है
वह मायका
Monday, June 10, 2019
मायका - 1
1
जैसे किसी समय में
होती थी
लड़की की विदाई
आंखें नम होती थीं
माता पिता, भाई बहन
और
सभी घरवालों की
नाते - रिश्तेदारों की
उसी तरह
लड़कों की भी
होती है विदाई
आज
मां बाप, भाई बहन
और घरवाले
रोते हैं
इस विदाई पर भी
मायका
लड़की का ही नहीं
लड़कों का भी होता है
जहां बचपन से पचपन तक का
संजोया हिसाब
सुरक्षित होता है
पुराने कागज़, यादें
घर की रखी पहली ईंट
दरवाजों के कब्ज़े,
चिटकनियां
और परदे
उसके आकार, प्रकार व रंग
पड़ोसी की चिकचिक
पड़ोसन की भाषा
कौए की कांव कांव
आने की आशा
होली का हुड़दंग
रंग और गुलाल
बोतल वाली पिचकारी
गुजिया, कचरी और पापड़
दिवाली के पटाखे
रंगीन फुलझडियां
धागे पे दौड़ती रेलगाड़ी
गोली से बनता सांप
खील और खिलौने
मोमबत्तियों का मोम
मोम से फिर मोमबत्तियां
बुझे हुए बम
मिठाइयां व मेला
बहनो की राखी
पतंग का उड़ाना
कटना और काटना
रामलीला की रातें
दशहरे का रावण
मिट्टी के भगवान
मेला, फिरकी और बरतन
भीड़, शोर और भगदड़
दशहरे का टीका
मीठा, नहीं फीका
बचपन की यारी
बचपन के खेल
बचपन की बदमाशियां
बचपन के मेल
पतली सी गलियां
गलियों के नुक्कड़
मोहल्ले का हुल्लड़
चाय वाला कुल्हड़
पतंगों वाला मांझा
अपना या सांझा
साइकिल पे चलना
समय का ढलना
सब याद है
मायका
केवल लड़की का ही नहीं
लड़के की भी बुनियाद है
सब छूट गया
मायके में
बस कुछ ही बचा है
ज़ायके में
Saturday, May 4, 2019
नेतृत्व नीति
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Friday, April 19, 2019
पानी, मिट्टी और पत्थर
पानी से जीवन
मिट्टी और पत्थर
बारिश की बूंदे
पत्थर की चमक
मिट्टी का भोजन
मिट्टी से पत्थर
पत्थर से मिटटी
हम
मिट्टी या पत्थर?
गांव और शहर
मिट्टी और पत्थर
गांव से शहर,
मिट्टी से पत्थर
बारिश का पानी
पत्थर से टक्कर
पत्थर से मिटटी
गाँव, शहर और पत्थर-वन
मिट्टी-पानी का खेल
उनकी घनिष्टता
का
प्रकार व विकार
समावेशी है
मिट्टी का स्वभाव
उसकी शक्ति है
उसकी लोच
शक्ति का
कभी-कभी
समय, काल व परिस्थिति
मिट्टी व पत्थर का संबंध
व समीकरण
गांव
बन रहे हैं
शहर
और शहर
वैश्विक गांव
गतिमान है
कालचक्र - कर्मचक्र
गति-सीमा से परे
क्या है दिल्ली
गांव अथवा शहर
मिट्टी अथवा पत्थर
-विजय कुमार श्रोत्रियः
[20:11, 11 अप्रैल, 2018]
Saturday, April 6, 2019
मंज़िलें उनको मिलीं जो दौड़ में शामिल न थे - पार्ट 2
दर किनारा कर किनारे दूर तक साहिल पे थे
तृप्त सरिता बह रही थी जल तरंगों को लिए
Thursday, April 4, 2019
मंज़िलें उनको मिलीं जो दौड़ में शामिल न थे - पार्ट 2
दर किनारा कर किनारे दूर तक साहिल पे थे
तृप्त सरिता बह रही थी जल तरंगों को लिए
Sunday, March 24, 2019
बीज
कई रोड़े हैं
जैसे भी हैं
हम सब मात्र यह सोचें
कि थोड़े हैं
पानी का खारापन
बीज के गुणों को
निचोड़े है
खाद ऐसी कि
मट्टी ही नहीं फोड़े है
सारे प्रयास
पौधा-फल-फूल
से जोड़े है
परंतु
बीज के प्रस्फुटित होने में
अभी भी बहुत रोड़े हैं
जल गई रस्सी
कुर्सी और मेज
बिस्कुट, गिलास और प्रस्ताव
सोफे व कुर्सी के मध्य
कुर्सी व सोफे पर रखे थे
प्रगाढ़, फलीभूत, निवेशित
कुर्सी के सम्बन्ध सचमुच
अजीब होते हैं
आशाओं व अपेक्षाओं से भरे
क्षमताओं व समीक्षाओं से परे
मेज की व्यथा दर्शनीय थी
उसके कान पक चुके थे
सुनसुन कर
प्रस्तावों पर चर्चा
वाद, प्रतिवाद
कुर्सी से सोफे तक
(कुछ महत्वपूर्ण से दिखने वाले
व्यक्तियों की
चहलकदमी के मध्य)
बाज़ार व समाज
उतार व चढ़ाव
व्यापार व व्यवहार
अर्थ व समर्थ
ग्राहक व कर्मचारी
प्रबंधक व निवेशक
सब कुछ इन मेजों के
दिमाग का वजन
बड़ा रहा था
कुर्सी पर बैठा व्यक्ति
अपने निवेश पर
प्रत्याय की अपेक्षा में
प्रश्नों के उत्तर दे रहा था,
अपने विवेकानुसार,
अपनी क्षमतानुसार
सोफे पर बैठे व्यक्ति
प्रस्तावों का मूल्यांकन कर रहे थे,
प्रस्तावों से अधिक
कुर्सी का
आंकलन व मूल्यांकन हो रहा था
क्योंकि वहां सम्बन्ध बैठे थे
सम्बन्धों के कान
सम्बन्धों की आंखों की भाषा
सुन रहे थे
सम्बन्धों के चर्म के संकेतों को
सम्बन्धों की नाक
सूंघ रही थी
और बेचारी मेज़
आंख, कान, नाक,
जिव्या व त्वचा
सभी के आत्मीय साक्षात्कारों को
पढ़ रही थी
अपनी कहानी गढ़ रही थी
अपनी कविता रच रही थी
अपने गीतों को संगीत दे रही थी
उसे पता था
कुर्सी ही उसका साथ देगी
जिससे वह अकेले में
अपनी वेदना
अपनी कहानी,
कविता, गीत व संगीत
साझा करेगी
कुछ समय बाद
जब मेज व कुर्सी
अकेले में होंगे
उनके सिवाय
जब कोई नहीं होगा आसपास
जब वे दोनों (सिर्फ दोनों),
कमरे में बंद होंगे
और चावी खो जाएगी
तो वे आपस में
अपने अपने अनुभव
साझा करेंगे
बातें करेंगे
हम सब उनकी बातों का
विषय होंगे
हिस्सा होंगे
क्या होगा
उनका आंकलन
कुर्सियों व सोफे पर बैठे व्यक्तियों का
कुर्सी व मेज़ के मूल्य
शायद
उतने बाज़ारू न हों
जितने
मुझे विश्वास है कि
उनके आंकलन में अवसरवादिता का
कोई स्थान नहीं होगा
उनकी संवेदनशीलता
मनुष्यों की तुलना में बहुत अधिक होगी
उनका भावनाबोध
अधिक बेहतर होगा
जीव मनुष्य
निर्जीव लकड़ी
जीवित
मृत
पुनर्जीवित
सम्बन्ध
अवसर
निवेश
पुनर्निवेश
प्रत्याय
मंज़िलें उनको मिलीं जो दौड़ में शामिल न थे
पर दिशा थी, दृष्टि थी;
कर्म था, आनंद था,
प्रण था, संतुष्टि थी;
प्रार्थना के स्वर सरल थे,
भाव कटु,
दाखिल न थे;
मंज़िलें उनको मिलीं
जो दौड़ में शामिल न थे।
बोझ कोई भी नहीं,
बस रास्ता था,
साथ था, संकल्प था;
फूल की खुशबू थी,
स्नेह था, रिश्ते थे,
नहीं विकल्प था;
साथ उनका भी मिला,
जो दृष्टि के काबिल न थे;
मंज़िलें उनको मिलीं,
जो दौड़ में शामिल न थे।
जड़ थी, पेड़ था,
शाखाओं से पत्ते,
वृक्ष छाया दे रहे थे,
पक्षियों के स्वर,
कहानी गढ़ रहे थे;
बौर था, आंधी थी, बल था,
पर कभी गा़फ़िल न थे;
मंज़िलें उनको मिलीं,
जो दौड़ में शामिल न थे।
जोर भी पुरजोर था, योद्धा थे,
गुणा पर अढ़ रहे थे;
भूल कर प्रारब्ध को,
छल भाव से,
कहानी गढ़ रहे थे;
तीब्र लहरों के थपेड़े थे,
मगर साहिल न थे;
मंज़िलें उनको मिलीं,
जो दौड़ में शामिल न थे।