Friday, July 30, 2010

यकीं होता नहीं, तेरे यार होने का
वो यार क्या जो, वक़्त पर दगा ना दे

विजय कुमार श्रोत्रिय

Saturday, July 24, 2010

फूल क्यों हम पर वार करते हैं
कांटे सब कुछ बहार करते हैं
रात के बाद दिन नहीं आता
क्योंकि सपने प्रहार करते हैं.
<विजय कुमार श्रोत्रिय>
1 February 2007...Bareilly....UP

Sunday, July 18, 2010

कितना करीब था वो 
मुझे अब पता चला 
दुश्मन के घर की छांव में
उसका था कद बड़ा
<विजय कुमार श्रोत्रिय>
25 July 1999...Kanglung...Bhutan

Tuesday, July 13, 2010

मेरी बर्बादी का चर्चा 
शहर की हर गली मे है 
ये कोई खेल नहीं है
जो हर कोई खेले
<विजय कुमार श्रोत्रिय>
28 January 1989...Bareilly....UP

Thursday, July 8, 2010

तुम्हारी आँख को देखूं 
तो कुछ लगे ऐसा
नशा शराब मे 
होता है या नहीं होता
<विजय कुमार श्रोत्रिय>
15 March 1989...Bareilly...UP

Friday, July 2, 2010

विडम्बना

समाज गिर रहा द्वन्द समान
गाता था ह्रदय करुण सा गान
          कभी था भरा जोश प्राणों मे
          रह गया शून्य समान वोह जोश
          कभी थी शांति घने जंगल मे
          पहुँच कर वहां उड़ गए होश
कभी बेहोश, कभी मदहोश
थी घोर विडम्बना लाखों के समान


समाज गिर रहा द्वन्द समान
गाता था ह्रदय करुण सा गान
            कभी थी कड़ी जहाँ पर कतार
            आज वहां है रिश्वतखोरी
            कभी थी रचती बारात श्रद्धा अनुसार
            बिक रही आज दहेज़ पर गोरी
कहीं पे दहेज़ कहीं परहेज
कर रहे जामाता गुणगान

समाज गिर रहा द्वन्द समान
गाता था ह्रदय करुण सा गान
यही सब विडम्बना का फल
देखना क्या होता है कल...

<विजय कुमार श्रोत्रिय, १९८३>
(पुवायां सन्देश मे प्रकाशित)