Friday, July 2, 2010

विडम्बना

समाज गिर रहा द्वन्द समान
गाता था ह्रदय करुण सा गान
          कभी था भरा जोश प्राणों मे
          रह गया शून्य समान वोह जोश
          कभी थी शांति घने जंगल मे
          पहुँच कर वहां उड़ गए होश
कभी बेहोश, कभी मदहोश
थी घोर विडम्बना लाखों के समान


समाज गिर रहा द्वन्द समान
गाता था ह्रदय करुण सा गान
            कभी थी कड़ी जहाँ पर कतार
            आज वहां है रिश्वतखोरी
            कभी थी रचती बारात श्रद्धा अनुसार
            बिक रही आज दहेज़ पर गोरी
कहीं पे दहेज़ कहीं परहेज
कर रहे जामाता गुणगान

समाज गिर रहा द्वन्द समान
गाता था ह्रदय करुण सा गान
यही सब विडम्बना का फल
देखना क्या होता है कल...

<विजय कुमार श्रोत्रिय, १९८३>
(पुवायां सन्देश मे प्रकाशित)

3 comments:

  1. आज भी एकदम प्रासंगिक।
    बेवजह की ढोलम ढोल मची है आज कल तो।

    ReplyDelete
  2. every time has its own pessimistic and optimistic perspective................
    though people of our time as described by you have become more inclined towards material world but still we can hope for better tomorrow .....
    its now responsibility of the present generation to pass the baton to the next generation with more morals and ethics at the very early level.....

    ReplyDelete
  3. Awadhesh Kumar ShirotriyaJuly 24, 2010 at 10:23 AM

    really touch to my heart

    ReplyDelete