Wednesday, April 14, 2010

मेरी उड़ान

तुमने, क्यों दिए मुझे पंख?
उड़ने के लिए ! सचमुच.

उड़ने का साहस, जब कभी मैने किया,
धरती ने खींचा है मुझे,
अपनी ओर.

पंख प्रदानकर,
मुझे ज़मीन मे गिरा दिया,
मैने देखा है
मेरी स्वतंत्रता पर लगा प्रश्नचिन्ह,
इन पंखों के कारण.

काश - मेरे पंख न होते.
न होता, कदापि, दिशाओं का युद्ध,
एक दिशा, एक मंतव्य, एक उद्वेश्य,
यह 'एक' ही प्रदान करता,
संतुष्टि, सौहार्द्, व प्रतिष्ठा.

पंख विहीन हूँ मैं, पंख होते हुए भी,
क्योंकि कोई 'एक' दिशा नहीं है.
यदि पंख दिए तो दिशा भी देता.

तू सोचता है, तुने बहुत कुछ दिया,
दिया - हाँ अवश्य दिया -
बहुत कुछ -
बलिदान -
आर्थिक, मौद्रिक व अमौद्रिक,
सामाजिक व शारीरिक,
मेरे पंखों के लिए.

मुझे पंख दिए (दिशाविहीन) ,
ओर छोड़ दिया,
झाड़ियों के जंगल में,
उड़ने के लिए.

जब जब मैने उड़ने का प्रयास किया,
धरती ने खींचा है, मुझे, अपनी ओर,
झाड़ियों से युद्ध करने मे,
रिसा लहू,
क्योंकि कोई 'एक' दिशा न थी.

तुमने एहसान किया,
मुझे पंख देकर.

काश!
तुम समझ सकते,
मेरे पंखों से रिसते लहू की पीड़ा.

तुमको इसकी अनुभूति मात्र मुझे पंख देने का परिणाम है...

6th Feb 1996, 10 PM, Qr No 29, Kanglung: Bhutan

6 comments:

  1. ढेर सारी शुभकामनायें.

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  2. "काश!
    तुम समझ सकते,
    मेरे पंखों से रिसते लहू की पीड़ा."
    दर्द का समंदर - बहुत खूब अति सुंदर - सार्थक रचना के लिए बधाई

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  3. ढेर सारी शुभकामनायें.

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  4. अच्छी रचना लिखी है आत्मिक पीड़ा का चित्रण

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  5. sahi disha ka gyan na hona bhi apne aap me durbhagya hai..
    achchi rachna hai

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  6. "Yadi Pankh Diye Toh Disha Bhi Deta... " Dil khush ho gaya, bade dino baad achchha aur sachcha sahitya dikha...Dhanyavaad Vijay bhai!

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