Wednesday, April 14, 2010

मेरे सपने

मेरे सपने अपने थे, जब हम केवल अपने थे
आज मुझे मालूम हो गया, सपने कितने अपने थे

कितने भी दुःख, कष्ट, सजाएँ, हंस के सब कुछ सह लेंगें हम
जीवन की हर धुंध ओड़कर, अन्धकार मे रह लेंगें हम
नहीं झुकेंगे कभी कहीं हम, ऐसे देखे सपने थे
सपने केवल अपने थे, जब हम केवल अपने थे

हर मुश्किल अच्छी लगती थी, जैसे कोई नया सवेरा
नई किरण की नई रौशनी, नया नया सपना था मेरा
नहीं कभी समझौता खुद से, ऐसे देखे सपने थे
सपने कितने अपने थे, जब हम केवल अपने थे

कोई शूल चुभा जैसे हो, आशाओं का धुंधला पड़ना
कब तक पतझड़ को देखे हम, ऋतुओं से कब तक हो लड़ना
रिश्तो मे इतनी दूरी क्यों, क्यों ये सपने अपने थे
सपने कितने अपने थे, जब हम केवल अपने थे

मेरे सपने अपने थे, सपने कितने अपने थे.

२८ जुलाई १९९९: ५:३० संध्या : कान्ग्लुंग : भूटान

2 comments:

  1. बहुत दिनों बाद इतनी बढ़िया कविता पड़ने को मिली.... गजब का लिखा है

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