Monday, April 26, 2010

जब कभी मैं अकेला होता हूँ

जब कभी मैं अकेला होता हूँ, 
मेरी लेखनी,
मुझे बिवश करती है,
अपने स्पर्श को,
लेकिन मैं उस घड़ी की
प्रतीक्षा करता हूँ,
जब मैं स्वयं,
उसके स्पर्श को
बिवश होऊं.
बिवषता के अंधकार में,
उजियारे मात्र को
चमकाने के लिए,
लेखनी थामकर बहुत कुछ
सोचता हूँ,
जब कभी मैं अकेला होता हूँ.

कभी गीत, कभी ग़ज़ल,
कभी कविता,
साहित्य,
हर क्षेत्र में विचरण
करने के पश्चात्,
निष्कर्ष निकालने में
स्वयं को असमर्थ पता हूँ,
जब कभी मैं अकेला होता हूँ.

कभी भूत तो कभी भविष्य,
बीते कल को याद करता हूँ,
जब कभी मैं अकेला होता हूँ.

वास्तविकता की पुस्तकें,
अपनी रुआंसी हंसी को,
होठों के चुम्बन के लिए
बाध्य करती हैं,
अपनी बीती हुई गाथा,
दोहराती हैं,
याद करती हैं.
वे जो कमल के पुष्प के समान,
कीचड़ मे भी मुस्करातीं थीं,
अठखेलियाँ किया करती थीं,
शाम को सांझ डलते,
कभी कभी उस द्रश्य को
याद करता हूँ,
जब कभी मैं अकेला होता हूँ.

बीते हुए क्षण
अकेले मे ही याद आते हैं,
अश्रुओं की वर्षा,
तो कभी,
ख़ामोशी के ओले,
अपनी-अपनी कथा,
स्वयं ही सुनाते है.
आशाएं और आकांक्षाएं,
गीले कागज़ पर
लिखे कुछ अक्षर,
जिस प्रकार
फ़ैल से जाते हैं,
इसी प्रकार,
बीते समय की छवि
गीली आँखों से
देखता हूँ,
सोचता हूँ,
तत्पश्चात निष्कर्ष,
रोता हूँ,
जब कभी मैं अकेला होता हूँ.

भविष्य,
अर्थात - आने वाला कल,
मात्र कल्पना के अंधकार मे
फंस जाता है,
जब कभी बीता हुआ कल
याद आता है.
कल्पनाओं को संचित करने के लिए,
स्वयं के मस्तिष्ट को,
स्वयं को,
असमर्थ पाता हूँ,

जब कभी मैं अकेला होता हूँ.

मानवीय शरीर के छिद्रों के समान,
कल्पनाएँ,
अनगिनत हैं,
कुछ छिद्र सरलता से
दृष्टिगत होते हैं,
ठीक उसी प्रकार
कुछ कल्पनाएँ,
महत्ता/आवश्यकता दर्शाती हैं,
वाकी सब वकवास नज़र आती हैं,
फिर भी वकवास पर अधिक
ध्यानाकर्षित करता हूँ,
जब कभी मैं अकेला होता हूँ.

कलम की स्याही,
स्वतः ही,
कुछ हल्की सी होती जाती है,
आखिर वह भी
अपनी व्यथा दर्शाती है,
बिना आंसुओं का रोना रोती है,
विना निद्रा के
सो सी जाती है,
बिना दर्द के कराहती है,
अंततः
स्वयं को कुछ उभारने मे
असमर्थ पाती है,
उसके इस विचित्र रूप को
समझने का
प्रयत्न करता हूँ,
जब कभी मैं अकेला होता हूँ...

(७ जुलाई १९८६ - तिलक कालोनी, सुभाष नगर, बरेली, उत्तर प्रदेश)

5 comments:

  1. जब कभी मैं अकेला होता हूँ
    मेरी लेखनी
    मुझे बिवश करती है
    अपने स्पर्श को
    लेकिन मैं उस घडी की
    प्रतीक्षा करता हूँ

    इन पंक्तियों ने दिल छू लिया... बहुत सुंदर ....रचना....

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  2. बहुत अच्छी प्रस्तुति संवेदनशील हृदयस्पर्शी मन के भावों को बहुत गहराई से लिखा है

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  3. बहुत बढ़िया,
    बड़ी खूबसूरती से कही अपनी बात आपने.....
    पूरी कविता दिल को छू कर वही रहने की बात कह रही है

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  4. being alone....
    anticipation of this state alone makes human a social animal. Being alone as described by you tells me how can provide space for introspection in life, but as said it should be voluntarily and not forced.
    nice presentation....

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  5. विजय जी आज आपके ब्लॉग पर पहली बार आना हुआ...सच मानिये मुझे यहाँ आ कर बहुत सुकून मिला. आपकी रचना के शब्द शैली और भाव तीनो बेजोड़ हैं. बहुत अच्छा कहते हैं आप.मेरी शुभ कामनाएं स्वीकार करें.
    नीरज

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