द्वेष, घ्रणा, छल, कपट, असत्य, फरेब,
आदि, इत्यादि,
शब्दों ने
किया है बसेरा मेरे शहर मे,
भाषा में,
चालढाल में,
रंग-ढंग में,
कारण, पता नहीं,
शायद,
वे अधिक फलते फूलते हैं,
शायद,
उन्हें दर्शन होते हैं
परमपिता परमेश्वर के,
शायद,
वे अधिक सम्रद्धवान होते हैं,
शायद,
उन्हे अधिक आदर मिलता है,
समाज से,
राष्ट्र से,
या फिर
उनकी पूँछ होती है,
उनकी पहुँच होती है,
परन्तु
यह निश्चित है कि
वो चोर हैं,
समान के नहीं,
सम्मान के,
हथियार के नहीं,
सत्कार के,
धन के नहीं,
मन के,
मकान के नहीं,
श्य्म्शान के,
यह ऐसी चोरी है,
जिसकी रपट
थानेदार नहीं लिखता,
इसको
प्रकाशित भी नहीं किया जा सकता,
कुछ लोग इसको
वकवास कहते हैं.
इसकी जांच पड़ताल
नहीं की जा सकती,
जासूसों द्वारा
क्योंकि
वे स्वयं जासूस हैं,
कंफुउस हैं,
मनहूस हैं,
डिफुउस हैं,
रिफुउस हैं,
समाज से, परिवार से,
जहां से,
जहाँ वो शरणार्थी हैं.
इसकी रपट लिखी
जा रही है,
इसकी जांच-पड़ताल
भी चल रही है,
उससे संभंधित कार्य
प्रगति पर है,
उनका भविष्य
अंधकार मे नहीं है,
उनके अनुसार,
वो जानता है
उसका परिणाम,
उसकी पीड़ियाँ
भुगतेंगी,
पश्चाताप,
उनकी पीड़ियाँ करेंगी,
उसको डर नहीं है,
बद्दुआओं का,
पीडाओं का,
पीड़ियों की.
परन्तु मैं सोचता हूँ,
क्यों ना अपना शहर बदल लूं,
या फिर
खत्म कर दूं,
इन सबको.
शायद बेहतर
यही होगा,
क्योंकि
यदि मैने शहर बदला,
तो उस शहर मे केवल
उन्ही की आवादी होगी,
परिवार नियोजन से
मुक्त होंगे
वे परिवार,
घर से शहर,
शहर से प्रदेश,
प्रदेश से देश,
देश से परदेश.
अब इन शब्दों का बसेरा
कहीं नहीं होगा
यदि
हम, आप और सब जागें,
देर है
अंधेर नहीं
परिवर्तन होगा
अवश्य
शब्दों में
प्रेम से
सत्य से......
(३० अगस्त, १९९१, ११:१५ सुबह, हर्मन माइनर स्कूल, भीमताल, नैनीताल, उत्तरप्रदेश - उत्तराखंड)
No comments:
Post a Comment