Saturday, May 29, 2010

आशय

उनके चुप से नहीं समझना
                वे कुछ बोल नहीं सकते हैं
                बस्ते खोल नहीं सकते हैं

मेरे चुप से नहीं समझना
                मैं कुछ बोल नहीं सकता हूँ
                होठों को खोल नहीं सकता हूँ

इक महिला की खातिर तुमने
सारे नियम तार कर दिए

                इक सदस्य के कह देने से
                छै पर तुमने वार कर दिए

उडिया और गुडिया की सरगम
हम सब झेल नहीं सकते हैं
वे कुछ बोल नहीं सकते हैं
बस्ते खोल नहीं सकते हैं

उनके चुप से नहीं समझना
                वे कुछ बोल नहीं सकते हैं
                बस्ते खोल नहीं सकते हैं

तेरे कन्धों की पीड़ा को
मेरा चश्मा देख रहा है
                तेरे सम्बोधन का आशय
                सबकी आंखें खोल रहा है

चश्मे से वो दिल तक पहुंचे
ऐसा बोल नहीं सकता हूँ
मैं कुछ बोल नहीं सकता हूँ
होठों को खोल नहीं सकता हूँ

मेरे चुप से नहीं समझना
                 मैं कुछ बोल नहीं सकता हूँ
                 होठों को खोल नहीं सकता हूँ

6 comments:

  1. मेरे चुप से नहीं समझना
    मैं कुछ बोल नहीं सकता हूँ
    होठों को खोल नहीं सकता हूँ

    प्रशंसनीय रचना - बधाई

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  2. तारीफ के लिए हर शब्द छोटा है - बेमिशाल प्रस्तुति - आभार.

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  3. सार्थक और बेहद खूबसूरत,प्रभावी,उम्दा रचना है..शुभकामनाएं।

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  4. विजय जी, कमाल कि रचना है, बेहतरीन!

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  5. Arrey baba.....Jo chup hai woh kabhi bol nahi payengey,kyunki unka samjhaney ki shakti chali gayee hai..isi liye bol nahi patey...

    biswajit

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  6. अजय श्रोत्रियOctober 18, 2010 at 7:42 PM

    बहुत..बहुत...बहुत
    .........बेहतरीन

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