उनके चुप से नहीं समझना
वे कुछ बोल नहीं सकते हैं
बस्ते खोल नहीं सकते हैं
मेरे चुप से नहीं समझना
मैं कुछ बोल नहीं सकता हूँ
होठों को खोल नहीं सकता हूँ
इक महिला की खातिर तुमने
सारे नियम तार कर दिए
इक सदस्य के कह देने से
छै पर तुमने वार कर दिए
उडिया और गुडिया की सरगम
हम सब झेल नहीं सकते हैं
वे कुछ बोल नहीं सकते हैं
बस्ते खोल नहीं सकते हैं
उनके चुप से नहीं समझना
वे कुछ बोल नहीं सकते हैं
बस्ते खोल नहीं सकते हैं
तेरे कन्धों की पीड़ा को
मेरा चश्मा देख रहा है
तेरे सम्बोधन का आशय
सबकी आंखें खोल रहा है
चश्मे से वो दिल तक पहुंचे
ऐसा बोल नहीं सकता हूँ
मैं कुछ बोल नहीं सकता हूँ
होठों को खोल नहीं सकता हूँ
मेरे चुप से नहीं समझना
मैं कुछ बोल नहीं सकता हूँ
होठों को खोल नहीं सकता हूँ
मेरे चुप से नहीं समझना
ReplyDeleteमैं कुछ बोल नहीं सकता हूँ
होठों को खोल नहीं सकता हूँ
प्रशंसनीय रचना - बधाई
तारीफ के लिए हर शब्द छोटा है - बेमिशाल प्रस्तुति - आभार.
ReplyDeleteसार्थक और बेहद खूबसूरत,प्रभावी,उम्दा रचना है..शुभकामनाएं।
ReplyDeleteविजय जी, कमाल कि रचना है, बेहतरीन!
ReplyDeleteArrey baba.....Jo chup hai woh kabhi bol nahi payengey,kyunki unka samjhaney ki shakti chali gayee hai..isi liye bol nahi patey...
ReplyDeletebiswajit
बहुत..बहुत...बहुत
ReplyDelete.........बेहतरीन