Monday, May 17, 2010

पश्चाताप

मेरी चौखट पर
किसी नामर्द की आहट,
मस्तिष्ट विचारता है,
समस्त भूत की पुस्तकें;
कुछ जानी पहचानी सी प्रतीत होती है,
यह दस्तक;
शायद -
पुनः मेरे स्पर्श की कल्पना
उन्हे हो,
परन्तु, बल्कि...
अब मात्र
निष्प्राण, मानव समान
किसी भाषा के प्रयोग
को दर्शाते हैं;
अरे वो .......?
नहीं हों सकता,
मुझे विश्वास नहीं है,
और
हों भी क्यों;
आखिर..........!
खैर...

परिवर्तन,
वक़्त की,
समय की मांग है,
परन्तु -
पुनः स्वयं के प्रयोग को
बाध्य करता है,
शायद
वो भी बिवश है,
किसी को क्या मालूम
सत्य क्या है...
संभवतः
मै भी नहीं जानता,
शायद वह भी नहीं,
फिर भी
कुछ है अवश्य,
यदि नहीं
तो यह आहट
आखिर
जानी, पहचानी
क्यों लगती है,
यदि सत्य,
वास्तव मे सत्य है,
तो करना ही पड़ेगा
पश्चाताप,
मात्र आहट को नहीं,
स्वयं मुझे भी
संतोष
किसे और क्यों...

(२९ अगस्त १९९१, १०:३५ सुबह, हर्मन माइनर स्कूल, भीमताल, नैनीताल, उत्तरप्रदेश (उत्तराखंड))

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