मुझको मालूम है
तुम्हारी आदत,
मैं जानता हूँ,
या
समझ सकता हूँ,
कब, कहाँ, क्यों, क्या होगा,
कौन करेगा,
परन्तु,
मौन हूँ,
क्यों,
पता नहीं.
मैं कुछ नहीं जानता,
उन्हें इन्तजार नहीं है,
सुबह का,
उन्हें प्यास है,
पानी की नहीं,
किसी और की.
वर्तमान में,
सच यह है,
कि
मैं कुछ नहीं जानता,
मुझे मालूम भी नहीं है
कुछ,
क्योंकि सत्य,
सत्य है,
एक कटु सत्य,
जिसे स्वीकारना
परे है,
स्वयं सत्य से,
सब जानते हैं,
सभी को मालूम भी है,
सत्य क्या है,
परन्तु,
साहस सब मे नहीं है,
है - परन्तु कुछ में.
सत्य,
पीछे है,
काले शीशे कि उस दीवार के,
जिसमे,
इधर से उधर का,
देखा जा सकता है,
उधर रौशनी होने पर,
इधर रौशनी होने पर,
देखा जा सकता है,
उधर से इधर का.
निष्कर्ष,
सत्य को चाहिए,
अभिव्यक्ति,
और
अभिव्यक्ति को चाहिए,
रौशनी - प्रकाश,
और उस हेतु चाहिए,
साहस
जिसकी तलाश है...
(३१ अगस्त १९९१, १०:३५ सुबह, हर्मन माइनर स्कूल, भीमताल, नैनीताल, उत्तरप्रदेश, उत्तरांचल)
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