मित्र ने एक बात बताई,
जो खोदते हैं,
दूसरों के लिए कुआँ,
स्वयं खुद जाती है
उनके लिए खाई.
उसकी यह बात
मेरी समझ मे नहीं आई,
तो मैने की खोज,
तो जाकर एक रोज,
जबकि
दूरबीन समान चश्मा
लगाया था,
तो कुछ-कुछ समझ मे आया था,
राजनीति का अध्ययन
करने के पश्चात,
जहाँ हर आदमी एक दूसरे की
कुर्सी के पीछे पड़ा है,
लेकिन उसे नहीं पता कि
उसके पीछे कौन खड़ा है,
यमदूत,
जो स्वयं उसकी कुर्सी के पीछे पड़ा है.
शायद हमारे देश मे,
प्रत्येक व्यक्ति,
किसी ना किसी की
कुर्सी के पीछे पड़ा है,
चाहे, वह राजनीति हो
या हो
नीति-राज.
यदि ऐसा नहीं है,
तो वह आदमी नहीं है,
वह है आदम.
वस्तुतः
इसीलिये हम जिंदा हैं
और
शर्मिंदा हैं
यहाँ प्रतियोगिता है, प्रतियोगी हैं
सहायता है, सहयोगी हैं
प्रेम है, वियोगी हैं
डाक्टर है, रोगी हैं
दवाई है, निरोगी हैं
अपराध हैं, भोगी हैं
पूजा है, योगी हैं
ढोंग हैं, ढोंगी हैं,
वैसे
सब के सब जोगी हैं.
स्वयं, स्वस्थ हूँ,
मस्त हूँ,
परन्तु अब पस्त हूँ.
वे सोचते हैं,
मैं किसी की कुर्सी के पीछे पड़ा हूँ,
शायद
इसीलिये वे कहते हैं,
मैं तुम्हारी कुर्सी के पीछे खड़ा हूँ,
इसलिए नहीं
कि यदि कुछ डगमगाओ,
तो सहारा दूं,
या, तुम्हे बता सकूं,
जाता सकूँ,
कि मैं तुम्हारे साथ हूँ,
बल्कि इसलिए
कि जब तुम खडे हो,
मैं तुम्हारी कुर्सी,
नीचे से खींच लूं,
और
खिलखिला सकूं,
तुम्हारे गिरने पर.
मैं जानता हूँ,
सच क्या है और कहाँ है,
मस्तिष्ट,
कहीं खो सा जाता है,
स्मरण कराता है,
कुआँ और खाई,
बात अब मेरी समझ मे आई
भलीप्रकार,
जो खोदते हैं,
दूसरों के लिए कुआँ,
स्वयं खुद जाती है,
उनके लिए खाई.
(५ अक्टूबर १९९१, ३ बजे शाम, हर्मन माइनर स्कूल, भीमताल, नैनीताल, उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड)
श्रीमती ममता भट के आग्रह पर, विषय उनके द्वारा दिया गया...
No comments:
Post a Comment