प्रतीक्षा,
कबतक, किसकी और क्यों,
कब, कहाँ, कौन,
हटाएगा
लगा प्रश्नचिन्ह
भविष्य के समक्ष.
कब तक लादना होगा
इस शरीर का भार,
स्वयं के कन्धों पर.
कुछ समय के लिए
बनेगीं बैसाखियाँ,
सहारे का पर्याय,
या फिर
सचमुच, क्या यह सत्य है
कि जीवन काटा जा सकता है,
काठ की बनी
बैसाखियों के सहारे.
कुछ समय के लिए
वर्तमान में किये गए कृत्य,
बैसाखियों को भी सहारा दे सकते हैं,
यदि कहीं द्रश्तिपात हो
अनुकूलता का
द्रष्टिकोण -
अनुकूल अथवा प्रतिकूल
भूत का अनुभव,
सिद्ध हो सकते हैं,
कुछ सहायक,
साफ़ करने मे,
भविष्य पर लगा प्रश्नचिंह.
परन्तु शायद
प्रतीक्षा ही
जीवन का अर्थ नहीं है...
(२८ मई, १९९३, हर्मंन माइनर स्कूल, भीमताल, नैनीताल, उत्तरप्रदेश, उत्तरांचल)
samay bitne par purani baten yaad jaroor aati hai......
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