Thursday, December 23, 2010

Ethics, Values and Business

Values, Business and Ethics
Raju and Raja played the tricks

Who is wrong and who is right
who gets the cake and who pays the price

Shuffling papers, shifting chairs
beyond values, get to the pairs

Business profit, profit business
compromising values beyond pareto hiss

Where is the heart and where is the conscience
where is the mind and where is the sense

we can talk, and talk and talk and talk
can we walk the talk and then we walk and talk and walk and talk

Ethics, Business and Values
Gandhi, CKP as Subhash views

Transforming minds, valued leaders
family, culture and self...cheerleaders

Heaven looks bad and hell looks good
shrinking mindsets, go for the good

Values fade and ethics cry
business earns with all that pry

What can we do?

All my kudos to U B S
All my cheers to U B S
All my greetings to U Me and Us
All of us wish for them and pray
Follow ethics, have strong value system.... U Me and They...

(Evening Class Auditorium, Panjab Univ, Chandigarh, 22 Dec 2010, 5:30 PM)

Tuesday, December 21, 2010

अक्सर अच्छा लगता है

अक्सर 
अच्छा लगता है
विदेश मे होना
इस देश मे होना
भूटान मे होना.

यहाँ के लोग,
यहाँ की संस्कृति
यहाँ के सपने
यहाँ का तंत्र
व शासन व्यवस्था
इस सत्य की अनुभूति कराते हैं.

यह वास्तविकता मे 
मेरा दूसरा घर है
भारत से वाहर
भारतीय होने पर गर्व
या 
भारतीय होने की शर्म.
भारतीयों के प्रति इनकी 
अवधारणा 
शायद ठीक ही है.
भारत का महान स्वरुप
भारत की विविधता  
भारत की राजनीति
भ्रष्टाचार मे लिप्त
तंत्र व
शासन व्यवस्था.

मुझे ये भारतीय मानते हैं
या अभारतीय
या भूटानी   
पता नहीं
परन्तु इनकी सोच मे
इनकी अवधारणा मे
काफी सच्चाई है.

मेरी अवधारणा मे भी 
भूटान
वो भूटान नहीं है
जो आज से दस वर्ष  
पहले था 

प्रजातांत्रिक तंत्र
ईमानदार शासन
साफ़ सुथरी सड़के  
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
इस तम्बाखू रहित 
बौद्ध देश में.

अक्सर 
अच्छा लगता है 
इस देश मे होना..... 
इतने वर्षों 
उपरांत...

Monday, December 20, 2010

अक्सर बुरा लगता है.

अक्सर
बुरा लगता है
विदेश मे होना
परदेश मे होना
इस देश मे होना

घटनाएं इस सत्य की अनुभूति कराती हैं
याद दिलाती हैं
परदेश मे होना
इस देश में होना
अक्सर
कभी-कभी
प्रायः

हम भी राष्ट्रीय हैं
गैर राष्ट्रीय नहीं
उस देश के
जिस देश की
बनाई सड़क पर
चल रहा हूँ मैं
जिस देश द्वारा
नीव डाले विद्यालय में
पड़ा रहा हूँ मैं
एक गैर राष्ट्र में

हमारा राष्ट्र
किसी गैर राष्ट्रीय को
गैर राष्ट्रीय नहीं कहता
इस गैर राष्ट्र की तरह
हम सब राष्ट्रीय हैं
फिर भी
बिना चैन सोना
विदेश मे होना
इस देश में होना
अक्सर
बुरा लगता है.

(Kanglung: Bhutan, 29th Nov 1994)
composed on the way from Yongfula to Kanglung, walking alone, at 2:30 PM while I sat on a viewpoint bench...

Friday, December 3, 2010

स्वार्थ

स्वार्थ
कठिन है
समझ पाना अर्थ
परिस्थिति, समय व व्यक्ति
पर निर्भर है
इसकी परिभाषा
इसका अर्थ

स्वयं के अर्थ हेतु किया गया कृत्य
स्वयं
प्रत्येक परिधि पर लागू है
व्यक्ति पर
क्षेत्र विशेष पर
समूह विशेष पर
देश विशेष पर
आदि,  इत्त्यादि.

स्वार्थी
कोई व्यक्ति, क्षेत्र, समूह, या देश
अधिकतर
प्रयोग इस शब्द का होता है संकुचित
व्यक्ति विशेष के सन्दर्भ में
द्रष्टिकोण भिन्नता दर्शाता है
दर्शाता है
शब्द के भिन्न प्रयोग.


मानवता 
क्या स्वयं की परिधि से परे है?
यदि नहीं
तो स्वार्थ प्रत्येक जगह है
किसी ना किसी रूप में
छावं में या धूप मे 
स्वार्थी 
प्रत्येक जगह हैं
हाथ में या पावं में
धूप मे या छावं में
प्रदेश मे या देश में
किसी ना किसी भेष में
देश में या परदेश में
मेल में या क्लेश में
गर्मी में, बरसात में
दिन में या रात में
बसंत में या जाडे में
मुफ्त में या भाडे में
घर में या वाहर
लेखक या शायर
साहसी या कायर
सच्चा या लायर

स्वार्थ
प्रत्येक जगह है
किसी ना किसी रूप में
छावं में या धूप में...

(Sherubtse College, Kanglung - Bhutan, Exam duty Room No B New building, 23rd Nov 1994, 10:40 AM)

Sunday, November 14, 2010

एक वार्तालाप

"आपकी  कवितायेँ  ठीक  से  खुल  नहीं  रही  हैं .
आपके  ब्लॉग  में  जा  के  भी  देखा."

"मेरे सिस्टम मे सब खुल रही हैं..."

"अब  मेरे  सिस्टम  में  भी  खुल  गयीं  हैं "

"समस्या सिस्टम की है...
कविता की नहीं
(बिचारी कविता बदनाम है)
सिस्टम ठीक होने पर
हर कविता खुलती है....
सिस्टम ख़राब होने पर
कविता लिखी जाती है
सिस्टम ठीक होने पर
कविता पड़ी जाती है..."

"क्या बात है!  शाबाश!! 
आप तो 'आशु'  कवि भी हैं. 
अभी-अभी पता चला.
बहुत खूब!!!"
***
समय, भावना, कल्पना, मजबूरी,
उड़ान, संघर्ष, साहस, व दूरी
हिम्मत, व्यवहार, सोच, व भाषा,
सपने, आँखें, दिशा और आशा
जिसको ना बना सके कवि,
सोचिये उसकी कैसी होगी छवि....

:::विजय कुमार श्रोत्रिय:::

Friday, November 12, 2010

साहस, परिस्थितियाँ व मजबूरी

जो महसूस करता हूँ
कह नहीं सकता
लिख सकता हूँ
जो महसूस करता हूँ
अप्रत्यक्ष रूप से
कह भी सकता हूँ.

प्रत्यक्ष
लिख सकता हूँ.

अभाव
साहस का
नहीं
अनुकूल परिस्थितियों का.

कोई दीवार खड़ी है
प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष के मध्य
साहस व परिस्थितियों के मध्य
कहना - किसको
निर्भर करता है
परिस्थितियों पर.

किसी से कह नहीं सकता
किसी से भी नहीं
विश्वास के कारण
लिखा किसी को दिखा नहीं सकता
किसी को भी नहीं
विश्वास के कारण
लिखता हूँ किसके लिए फिर
स्वयं को अनुभव दिलाने के लिए!

शायद इसलिए कि
साहस और परिस्थितियों से
समझौता प्रदर्शित कर सके
जो कुछ मैं लिखूं.

या फिर
जब साहस हो तब
दिखा सकूं
पड़ा सकूं
प्रकाशित करा सकूं.

वास्तव में
सबकुछ
परिस्थितियों पर निर्भर है
समय पर भी
स्वयं पर भी
कोई एक अकेला इसके लिए उत्तरदायी नहीं है
आखिर इसीलिये
सोचना पड़ता है,
बोलने से पहले
कहने से पहले
कुछ भी
और लिखने से पहले
कुछ भी

अंततः:
सबकुछ ना कह सकता हूँ,
सबसे
न लिख सकता हूँ
सबके लिए
प्रयास कर सकता हूँ
अवश्य
साहस, परिस्थितियाँ व मजबूरी...

(Quarter No 33, Sherubtse, Kanglung, Bhutan: 2.11.1994..4 PM.. tomorrow is diwali)

Saturday, November 6, 2010

Diwali 2010

light of hope and expectation,
celebrating the victory
good over evil, 
evil of thought and of action
arrival of Ramrajya
ray of hope
good over evil
beyond wayward behaviour
positivity in thought and action
light of hope and expectation...

Thursday, November 4, 2010

कांग्लुंग मे दिवाली

कांग्लुंग कॉलेज मे, आई दिवाली
प्रथम बार हमको लगा, रंग, रूप, जाली
रंग, रूप, जाली, याद आई थी घर की
ऐसा लगा, जैसे हो, यही मजबूरी हर की

हर सुख, हर स्थान पर, नहीं कभी संभव
स्वर्ग बने धरती, अगर हो जाये संभव
हो जाये संभव, प्रकाश घर-घर मे जागे
दिवाली सन्देश मे, यही कहे, भागे

भारतीय आकाश में, शोर रहे इस रात
शांति कर रही शोर है, कान्ग्लुंग की बात
कान्ग्लुंग की बात, रात मे होती वाह-वाह, दाद
खील, बताशे, खिलौने, हमे लगे अपवाद

सुबह हुई देखा सुना बीती दिवाली,
प्रथम वार हमको लगा रंग रूप जाली...

(27 Sept 1994 - Exam duty, room no 26, Sherubtse College, Kanglung, Bhutan)

Tuesday, November 2, 2010

तुम और मैं

मैं क्यों भूल जाता हूँ
तुम्हारे स्नेह की भाषा
            प्यार की परिभाषा
            आलिंगन का आशय
तुम्हारे शरीर का स्पर्श
            स्पर्श का आकार, प्रकार
            स्पर्श की ऊर्जा
तुम्हारे पैरों की आहट
            आँखों का आमंत्रण           
            आँखों के स्वप्न
            स्वप्नों की उडान
और
तुम्हारे कृत्यों की सीमा
मैं भूल जाता हूँ
क्यों?
...
मैं भूल जाता हूँ
और
फिर भी चाहता हूँ
तुमको स्मरण रहे
तुम ना भूलो
           मेरा प्यार
           मेरी परिभाषाएं
           मेरा आलिंगन व उसका आशय
           मेरा स्पर्श
           मेरी आहट
           मेरी उडान
           मेरी सीमा
मुझको...
...
तुम
तुम हो
और
मैं
मैं
क्यों भूल जाता हूँ मैं....
(Shillong...L-57...2nd Nov 2010...9 AM)

Saturday, October 30, 2010

शराब पीकर

शराब पीकर
सब कुछ भूल जाता है
क्या?
अपना नाम
या
अपनी पुत्री व पत्नी मे फर्क
क्या दे सकते हैं कोई तर्क
प्रश्न?

हाँ भूल जाता है
कि
उसका बेटा स्कूल जाता है
पड़ना उसे कितना भाता है
तदर्थ
पैसा कहाँ से आता है?

हाँ
सब कुछ भूल जाता है
कि
घर मे उसकी बूड़ी माता है
कितना उसकी दवाई का बिल आता है
तदर्थ
पैसा कहाँ से आता है?

हाँ
अक्सर भूल जाता है
कि
उसको बेटी हेतु ढूदना जामाता है
जिस हेतु दहेज़ भी जाता है
तदर्थ
पैसा कहाँ से आता है?

भूल जाता है
सचमुच
पैसा कहाँ से आता है
        कहाँ जाता है
         कैसे आता है
          कैसे जाता है
भूल जाता है
शराब पीकर...

(1st October, 1994, Sherubtse, Kanglung, Bhutan, 1:30 PM)

Tuesday, October 12, 2010

मेरा तेरा, तेरा मेरा

किसने देखा, किसका गाँव
धरती पर रखने दो पाँव

सब इतिहास, हुआ भूगोल
आंखें किसको रहीं टटोल

मेरा तेरा, तेरा मेरा
कैसा होगा नया सवेरा

उसकी भाषा, उसका दावं
धरती पर रखने दो पाँव
किसने देखा, किसका गाँव.

मेरा घर, मेरा संसार
आस पास सब है परिवार

तेरा भवन, भवन बेकार
आंखें ढूँढें पालनहार

कदम पड़ रहे, डावांडोल
आँखें किसको रहीं टटोल
सब इतिहास हुआ भूगोल.

जीवन का सब सार विचार
साथ ना जाये कुछ भी यार

धन, पद, शक्ति और सम्मान
नियमो का क्यों हो अपमान

बीन बजाये, कौन सपेरा
मेरा तेरा, तेरा मेरा
कैसा होगा नया सवेरा...

(7th Oct 2010/ Shillong - Meghalaya)

Wednesday, September 29, 2010

अच्छा लगता है हवा मे उड़ना

अच्छा लगता है
हवा मे उड़ना
आसमान की ओर
भीड़ से दूर
वाहनो के शोर से दूर
बादलों से बात करना
टिमटिमाती धरती को निहारना

अच्छा लगता है
हवा मे उड़ना
आसमान की ओर
अनजानों के साथ
तारों को निहारना
और ऊंचाइयों को छूना

अच्छा लगता है
हवा मे उड़ना
यह जानते हुए भी
कि यह क्षणिक है
मैं यहाँ रह नहीं सकता
            अनजानों के साथ
मैं एक क्षण भूल जाता हूँ
मुझे उतरना है
फिर जाना है
अनजानों से दूर
अपनों के पास
धरती पर

मुझे अच्छा लगना चाहिए
धरती पर रहना
हवा मे उड़ने से ज्यादा
फिर भी
यह क्षणिक अनुभूति अच्छी है
जानता हूँ
यह क्षणिक है

प्रायः क्षणिक अनुभूतियों हेतु
हम युद्ध करते हैं,
       क्रुद्ध होते हैं
जानते हुए भी
जीवन क्षणिक सुख
          क्षणिक अनुभूतियों के हेतु
नहीं बिताया जा सकता है.

प्यार, स्नेह, सम्बन्ध,
समन्वय, सम्भाव, सम्पन्नता
सब धरती पर ही है
फिर भी
अच्छा लगता है
हवा मे उड़ना
आसमान की ओर
अपनों से दूर
क्यों?

(26 Sept 2010, On-board, GoAir - delhi-indore/8:10 pm)

Friday, September 24, 2010

उनके कान

उनके कान,
क्यों वह सुनते हैं
जो सुनना नहीं चाहते हैं वे
या,
दिखाना नहीं चाहते हैं
कि उन्होंने कुछ सुना.

वे सुनना चाहते हैं वह सब
जो लोग उनको सुनाना चाहते हैं
फिर क्यों
उनका चुनाव
व्यक्तियों का है
न कि
वे "क्या" सुनाना चाहते हैं
उसका...


(20th Sept 2010, Shillong)

Saturday, September 18, 2010

मेरे कान

कान,
क्यों वो सुनते हैं
जो सुनना नहीं चाहता हूँ मैं
या,
दिखाना नहीं चाहता हूँ मैं
कि मैने कुछ सुना.

मैं
सुनना चाहता हूँ
वह सब
जो लोग सुनाना चाहते हैं
फिर क्यों
मेरा चुनाव
व्यक्तियों का है
न कि
वे "क्या" सुनाना चाहते हैं
उसका...

(17th Sept 2010, Shillong)

Thursday, September 9, 2010

मेरी आंखें और चश्मा

आंखें क्या क्या देखती हैं?
चश्मे की आवश्यकता क्यों पड़ती है?
किस समय कौन सा चश्मा?

चश्मा
कभी देखने के लिए
कभी ना देखने के लिए
कभी लोगों को दिखाने के लिए -
            मैं सब-कुछ देख सकता हूँ
            या
            मैं कुछ नहीं देख सकता

कभी यह भी दिखाने के लिए कि -
             मैं क्या हूँ
             मै क्या नहीं हूँ
चश्मा -
सब कुछ देख सकता है
चश्मा -
कई बार आँखों को विश्राम देता है
कई बार उसकी नग्नता को भी
इसलिए कि समय पडने पर,
नग्न होने पर
साफ़ और स्वच्छ रूप से देख सके

चश्मा -
देखने की गति बड़ा देता है
कई बार
चश्मा सब कुछ देख सकता है
यदि इस आशय से पहना जाये
चश्मा कुछ नहीं देख सकेगा
यदि इस आशय से पहना जाये
महत्वपूर्ण है
आशय
जो बदल भी सकता है
समय के साथ
परिस्थितियों के साथ
आप देखना चाहते हैं
या नहीं?

नग्न आंखें देखती हैं
वह भी - कई बार
जो देखना नहीं चाहते.
कई बार
नहीं देख पाती हैं
जो देखना चाहते हैं.
नग्न आंखें - नग्न हैं
आशय के महत्व से परे
          नग्न आंखें क्या क्या देखती हैं
          नग्न आंखें सब कुछ देख सकती हैं
          सब कुछ देखती हैं
आंखें
झुकी हुई या उठी हुई
खुली या बंद
हंसती या रोती
कटी या फटी
शांत या अशांत
अपना कहना कहतीं हैं
अक्सर
चुप रहती हैं, शांत रहती हैं
अपना कहना कहती हैं
चीखती हैं, चिल्लाती हैं
अपना कहना कह जाती हैं
अक्सर
वाणी के बिना.

नग्न आंखें सब कुछ देख सकती हैं
सचमुच
काफी कुछ कह भी सकती हैं
वाणी के बिना.

आँखों की ध्वनि/आवाज
देखी जा सकती है - सुनी नहीं
अक्सर
देखना सुनने से अधिक
महत्वपूर्ण होता है.
विश्वास
देखने पर या सुनने पर - ?
नग्न आंखें बोलती हैं
अक्सर
वाणी के बिना.

अश्रु
आँखों का कहना कहते हैं
अपने समय पर बहते हैं
ख़ुशी मे हंसकर
दुःख मे फंसकर
बहुत कुछ सहते हैं
आँखों का कहना कहते हैं
एक माध्यम बनकर.

अश्रु का समय पर ना आना
किसी अभाव को प्रदर्शित करता है
उस व्यक्ति के मनोभाव को
चित्रित करता है
आंसुओं का समय पर ना आना
मौन रहकर
प्रयास करता है
कुछ कहने का
सब-कुछ सहने का
परन्तु
अश्रु का ना बहना
स्वयं एक माध्यम बन जाता है
कुछ कहने का
और कह जाता है
अक्सर
वाणी के बिना
प्रायः:
व्यक्ति करता है यही आशा
कैसे भी समझ सके
अश्रुओं की भाषा.

आंखें, चश्मा और अश्रु
चश्मा
आँखों पर
कई बार
अश्रुओं को आश्रय देता है
ना दिखा सके वह
जो दिखाना नहीं चाहती है
आंखें
ना कह सके वह
जो कहना नहीं चाहती हैं
आंखें -
आंखें
सब कुछ देखती हैं - देख सकती हैं
सब कुछ कहती हैं - कह सकती हैं
सब कुछ बोलती हैं - बोल सकती हैं
अश्रुओं की पीड़ा के परे
अक्सर
वाणी के बिना
शब्दों के बिना.

(28th Sept 1994, Room No 27, Sherubtse College, Kanglung, Bhutan, 4:20 PM)

Wednesday, August 25, 2010

Can we resolve, Can we solve...


Running Pillar to Post,
Farm to Fork,
Shimla to Shillong,
defying definite demonstrations
and defining dualism,
reaching out for 
serendipity,
with an expression 
of a jingoist,
can we resolve
can we solve
without a thought of thee or we,
without a thought of 
my beloved university.

Having sybaritic sensibilities
in the times of austerity,
looks like condominium
in legally established frames 
and fabian,
showing 
unity in bio-diversity,
carrying the gravamen 
with an intent of hiatus,
can we resolve
can we solve
without a thought of thee or we,
without a thought of 
my beloved university.

Shuttling the shuttle 
to show power 
on a non-living entity,
poor feathered entity.
Shouting slogans of 
corruption,
unscrupulous, undisciplined,
spineless opportunists,
defining and redefining,
shifting and drifting,
loyalties,
commencing a state of Leviathan  
and behaving like a Philistine,
can we resolve
can we solve
without a thought of thee or we,
without a thought of 
my beloved university.



Ignoring trumped up platitudes, 
demonstrating bewildered behavior
with calculated loyalties and 
miscalculated outcomes.
Polarization in
my beloved association,
my beloved university
flimsy 
and at times
obdurate behavior
shall not take us anywhere. 

It is not mine,
it is ours,
a temple of learning
for me.
Let us all pray
for 
recrudescence, 
revival and restrain,
if we can,
yes we can.

(I am thankful to all those who used many of the words used in the poem in the eConversations in NEHUTA googlegroup in last few days, had it not happened, this poem would not have got its birth....thanx a lot for inspiring me)

Friday, August 20, 2010

पेड़ व समीकरण

पेड़,
जमीन पर उगता है पेड़
जमीन के अन्दर होती है उसकी जड़
और
जड़ पर निर्भर करता है
पेड़ का अस्तित्व.

पेड़,
पेड़ पर होती है शाखाएं
शाखाओं पर होती हैं पत्तियां
                होते हैं फूल, फल और कांटे.

पेड़ पर होती है शाखाएं
शाखाओं पर होते हैं सम्बन्ध
संबंधों से बनते हैं समीकरण
और समय पर, मौसम पर
                निर्भर करते हैं समीकरण.

पेड़ से आती है लकड़ी
और लकड़ी से बनती है कुर्सी
कुर्सी से बनते हैं सम्बन्ध

संबंधों से बनते हैं समीकरण
और समय पर, मौसम पर
                निर्भर करते हैं समीकरण.

पेड़ शांत रहता है
कभी बोलता है,
बडबडाता है,
दहाड़ता है.
पेड़ घूमता है,
नाचता है,
गाता है,
संगीत सजाता है.
पेड़ चलता है,
दौड़ता है,
समय के साथ -
जड़ के साथ - 
बिना किये कोई समझौता.

पेड़ पर रहते हैं,
कीडे, मकोडे व पक्षी.
पेड़ पर होते हैं,
आश्रित 
जीव - मनुष्य, जानवर, 
कीडे, मकोडे व पक्षी,
कुर्सी पर भी.

सम्बन्ध, समीकरण व संयोग,
समय, काल व परिस्थिति, 
पेड़ को जड़ से अलग करते हैं.
पेड़ शांत रहता है
सब कुछ सहता है.

समय, काल और परिस्थिति,
जड़, पेड़ और कुर्सी,
सम्बन्ध, समीकरण और संयोग,
अपना-अपना कहना कहते हैं,
सब कुछ सहते हैं,
पेड़, 
जड़ से अलग होकर भी.

(15 July, 2008, Shillong, 10:55 AM-12:20 Noon)

Saturday, August 14, 2010

विश्वास करके मैने हज़ार ठोकरें खायीं
फिर भी रेखाएं हाँथ की उल्टी पायीं

विजय कुमार श्रोत्रिय

Friday, August 6, 2010

मैंने देखा भाव सब बडने लगे हैं
क्या कहूं अब शब्द भी लड़ने लगे हैं
भूख सोई है कहीं करवट बदलकर
अन्न के दाने वहां सड़ने लगे हैं

विजय कुमार श्रोत्रिय

Friday, July 30, 2010

यकीं होता नहीं, तेरे यार होने का
वो यार क्या जो, वक़्त पर दगा ना दे

विजय कुमार श्रोत्रिय

Saturday, July 24, 2010

फूल क्यों हम पर वार करते हैं
कांटे सब कुछ बहार करते हैं
रात के बाद दिन नहीं आता
क्योंकि सपने प्रहार करते हैं.
<विजय कुमार श्रोत्रिय>
1 February 2007...Bareilly....UP

Sunday, July 18, 2010

कितना करीब था वो 
मुझे अब पता चला 
दुश्मन के घर की छांव में
उसका था कद बड़ा
<विजय कुमार श्रोत्रिय>
25 July 1999...Kanglung...Bhutan

Tuesday, July 13, 2010

मेरी बर्बादी का चर्चा 
शहर की हर गली मे है 
ये कोई खेल नहीं है
जो हर कोई खेले
<विजय कुमार श्रोत्रिय>
28 January 1989...Bareilly....UP

Thursday, July 8, 2010

तुम्हारी आँख को देखूं 
तो कुछ लगे ऐसा
नशा शराब मे 
होता है या नहीं होता
<विजय कुमार श्रोत्रिय>
15 March 1989...Bareilly...UP

Friday, July 2, 2010

विडम्बना

समाज गिर रहा द्वन्द समान
गाता था ह्रदय करुण सा गान
          कभी था भरा जोश प्राणों मे
          रह गया शून्य समान वोह जोश
          कभी थी शांति घने जंगल मे
          पहुँच कर वहां उड़ गए होश
कभी बेहोश, कभी मदहोश
थी घोर विडम्बना लाखों के समान


समाज गिर रहा द्वन्द समान
गाता था ह्रदय करुण सा गान
            कभी थी कड़ी जहाँ पर कतार
            आज वहां है रिश्वतखोरी
            कभी थी रचती बारात श्रद्धा अनुसार
            बिक रही आज दहेज़ पर गोरी
कहीं पे दहेज़ कहीं परहेज
कर रहे जामाता गुणगान

समाज गिर रहा द्वन्द समान
गाता था ह्रदय करुण सा गान
यही सब विडम्बना का फल
देखना क्या होता है कल...

<विजय कुमार श्रोत्रिय, १९८३>
(पुवायां सन्देश मे प्रकाशित)

Thursday, June 24, 2010

Yoga Yatra at NEHU

For the well-being of community
            peace in minds
            positivism in thoughts
            constructivism in action
neutralising expectations.

For the dreams of the future
to have better health
            - mental and physical
            - global, regional and local
humming sound of uuh, uuh, uuhs,,,
            hick, hick, hick, dhak dhak dhak
            and the music of birds' chirping
providing respiration...


Tomorrow of hope not fear
tomorrow of dream not sleep
tomorrow of action not just thoughts

Yoga helping us to shape ourselves better
            in body and soul
            to respond to actions better
            sharing melting bowl
Participants dropping and joining
symbolising dynamism and freedom

The kid's crawl
Going beyond community hall
making yoga present in school hall..

The kids murmuring,
            concentrating
            - pulling up
            - pushing down.

What a scene to watch
let them remember in their lives
they had yoga
while they were here
they can do better in their lives.

For making their dreams come true
            with a body fit
            soul ready
            mind open
we pray for their better future.

Why should they have a close shave
long live Baba Ram Dev....


vkshrotryia, 23 June 2010 (2nd day of Yoga Camp)
pictures courtesy: MP Pandey

Sunday, June 20, 2010

प्रजातंत्र की आग लगी है 
हर कोने हर डेरे में
देख रौशनी चौंक रहा है 
कोई आज अंधेरे में
<विजय कुमार श्रोत्रिय>
3 May 1990...Bareilly...UP

Monday, June 14, 2010

नीरज के एक गीत का उत्तर...

उनको पीकर ही हुई चिंता हमारे देश की
उनके पीने का यही अंदाज़ कुछ कर जायेगा

उनको कानूनों को समझाने से क्या होगा बता
धर्म के सौदागरों को कौन समझा पायेगा

हर किसी को देश के हालात से वाकिफ ना कर
हर किसी का दिल जलेगा हर कोई शरमाएगा

देखकर मेहँदी लगी उन बालकों के हाथ पर
कौन जाने कौन उनको शहर तक ले आएगा

कालिजो के रंग क्या देखे नहीं हैं आपने
आपकी ही आपका बेटा खबर ले जायेगा

मैं नहीं कहता उन्हे पीकर नहीं रहता है होश
उनको तब होगी खबर जब सारा घर जल जायेगा

<विजय कुमार श्रोत्रिय>
(28 April 1990, Bareilly, UP)
(This poem was composed as a reply to one of the poem of Gopal Das Neeraj, which I heard through him personally in a gathering)
गीत जब मर जायेंगे, तो क्या यहाँ रह जायेगा,
इक सिसकता आंसुओं का कारवां रह जायेगा. (गोपाल दास नीरज)

Tuesday, June 8, 2010

आपकी ख़ामोशी अब 
बर्बाद कर देगी मुझे 
मौन रहकर आपने 
वो कह दिया, कहना ना था
<विजय कुमार श्रोत्रिय>

30th August 1991... Bhimtal.... UP (Now Uttranchal)

Thursday, June 3, 2010

पूछिए उनको किसी से
है मुहब्बत या नहीं
हर किसी को हो गई
उनसे मुहब्बत क्या करें 
<विजय कुमार श्रोत्रिय> 
30th April 1990...Bareilly... UP...

Saturday, May 29, 2010

आशय

उनके चुप से नहीं समझना
                वे कुछ बोल नहीं सकते हैं
                बस्ते खोल नहीं सकते हैं

मेरे चुप से नहीं समझना
                मैं कुछ बोल नहीं सकता हूँ
                होठों को खोल नहीं सकता हूँ

इक महिला की खातिर तुमने
सारे नियम तार कर दिए

                इक सदस्य के कह देने से
                छै पर तुमने वार कर दिए

उडिया और गुडिया की सरगम
हम सब झेल नहीं सकते हैं
वे कुछ बोल नहीं सकते हैं
बस्ते खोल नहीं सकते हैं

उनके चुप से नहीं समझना
                वे कुछ बोल नहीं सकते हैं
                बस्ते खोल नहीं सकते हैं

तेरे कन्धों की पीड़ा को
मेरा चश्मा देख रहा है
                तेरे सम्बोधन का आशय
                सबकी आंखें खोल रहा है

चश्मे से वो दिल तक पहुंचे
ऐसा बोल नहीं सकता हूँ
मैं कुछ बोल नहीं सकता हूँ
होठों को खोल नहीं सकता हूँ

मेरे चुप से नहीं समझना
                 मैं कुछ बोल नहीं सकता हूँ
                 होठों को खोल नहीं सकता हूँ

Saturday, May 22, 2010

समय की गति

समय,
गतिशील है,
गतिवान है,
अविराम है,
कुछ कुछ
जीवन की तरह,
परन्तु
जीवन गतिशील होते हुए भी
अविराम नहीं है,
जीवन,
मनुष्य का,
जानवर का,
पक्षी का,
पौधे का,
या ब्रक्ष का,
समान नहीं है,
परन्तु
अविराम भी नहीं है,
कभी ना कभी,
कहीं ना कहीं,
अवश्य होगा,
विराम,
समय से बिछुड़ना ही होगा
जीवन को.

समय,
बहुत स्वार्थी है,
नहीं रखता किसी के साथ,
इतनी घनिष्ठता,
जिसको दे सके
अपनी आयु,
जिसके साथ
रह सके
अविराम रूप से,
उसका कोई प्रतिद्वंदी
भी नहीं है,
वह सर्वशक्तिमान है.

समय,
जन्म देता है,
कई लड़ाइयों को,
समय कि गति से भी तीब्र
गति से,
भागने का प्रयास करता है,
मानव,
जिस प्रकार से,
बढती जाती है
जीवन की गति,
समय का महत्व भी,
बढता जाता है,
समय कि गति समान रहती है,
परन्तु
प्रतीत होता है,
कभी तीब्र - कभी मंद,
यही दर्शन है,
समय का.

कौन रोक सकता है,
समय को,
कौन रोक पायेगा,
यदि किया गया,
कोई प्रयास,
इस आशय का,
बस ठीक उसी समय
युद्ध प्रारंभ हो जायेगा,
विराम व अविराम के मध्य,
अविराम, विराम के जीवन पर
प्रश्नचिन्ह लगाएगा,
और,
उसका साक्षात्कार,
उसके समय से कराएगा,
अंततः
विराम,
विराम हो जायेगा,
एक पूर्ण विराम,
गतिहीन,
ठहरा हुआ,
रुका हुआ,
और
अविराम,
हमेशा की तरह,
बढ जायेगा,
आगे,
प्रतीत होगा,
उसकी गति मंद थी,
उसकी गति तीब्र है,
यह सब
मस्तिष्ट का फेर है,
ना कहीं जल्दी है,
ना देर है,
इसको समझ पाना,
ना कठिन है,
ना आसान है,.
समय गतिशील है,
गतिवान है,
जिसकी गति समान है....
(२६ सितम्बर, १९९९, कक्ष स: १९, ४ बजे संध्या, परीक्षा ड्यूटी, शेरुब्त्से कॉलेज, कंग्लुंग, भूटान)

समय का पहिया

समय का पहिया घूम रहा है
गति सीमा से परे,
गति निर्भर करती है,
परिस्थितियों पर,
कई बार
गति प्रदान करने वाले
व्यक्ति पर भी,
परन्तु,
न्यूनतम व अधिकतम,
गति सीमा से परे,
कठिन है जाना.
जैसे लगता है,
रविवार २४ घंटे का नहीं होता,
बल्कि मध्य में या कभी-कभी,
प्रारम्भ में,
याचना करता है
दशमलव के प्रयोग की,
जबकि कई बार कई दिन
२४ घंटे के स्थान पर
४२ घंटे के प्रतीत होते हैं.
क्षण-घंटे-दिन-सप्ताह-माह व वर्ष,
किस प्रकार गुज़र जाते हैं,
ज्ञात होता है,
गुजरने के बाद.
यदि यह अनुभूति,
प्रारंभ में ही हो जाये,
जानिए,
आधी समस्याओं का समाधान.

आयु व समय
एक दूसरे से साक्षात्कार करते हैं
प्रायः
किस समय, कौन किसका
साक्षात्कार कर रहा है,
बता पाना कठिन है,
यदि कोई इसको समझ सके,
या स्पष्ट रूप से जान सके,
जानिये
आधी समस्याओं का समाधान...

स्वयं की आयु का ज्ञान कब होता है?
जब स्वयं द्वारा पानी दिए पेड़ की
टहनियां लहलाहतीं हैं,
फलों का लालच देकर
पास बुलाती हैं,
तब.

एक शिक्षक द्वारा पडाया गया छात्र
आसीन होता है उसके बराबर के
पद पर
तब.

मोहल्ले में पडोसी का बेटा
जो खेलता था कंचे
आँखों सामने,
अब व्यापार में पिता का
हाथ बटाता प्रतीत होता है
तब.

एक नौजवान दिखने वाले
अभिनेता का पुत्र
उसी अभिनेत्री के साथ
अभिनेता के रूप मे प्रदर्शित होता है
जिसके साथ कभी,
उसके पिता प्रदर्शित होते थे
तब.

इमारतों की मंजिलें
बढती दिखतीं हैं
तब.

सड़क की चौडाई
बढती दिखती है
तब.

रामलाल की बेटी गुडिया
जिसे कभी गोदी में खिलाता था
पुत्रवती होती है
तब.

या फिर तब
जब
माता पिता मे खिलखली
का सिलसिला
कम होता दिखाई देता है.

तब - जब
सुई में धागा डालने के लिए
माँ को चश्मे की

आवश्यकता होती है.

तब - जब
पिता को
चाय में चीनी
व सब्जी में नमक
अधिक लगता है.

तब - जब
डाक्टर अंकल से मेल अधिक
दिखता है
परिवार का.

तब - जब
स्वयं की गतिविधियाँ
दोहराई जाती हैं
स्वयं के बच्चों के द्वारा
स्वयं के शिष्यों के द्वारा.

सचमुच
समय का पहिया घूम रहा है
गति सीमा से परे
जो इस गति सीमा को
ठीक ठीक पड़ ले
जानिए
अधिकतर समस्याओं का समाधान...

(२६ सितम्बर, १९९४, शेरुब्त्से कॉलेज, कान्ग्लुंग, त्राशीगांग, भूटान, exam duty: room no 15 - 9:15 to 10 AM)

Wednesday, May 19, 2010

प्रतीक्षा

प्रतीक्षा,
कबतक, किसकी और क्यों,
कब, कहाँ, कौन,
हटाएगा
लगा प्रश्नचिन्ह
भविष्य के समक्ष.
कब तक लादना होगा
इस शरीर का भार,
स्वयं के कन्धों पर.

कुछ समय के लिए
बनेगीं बैसाखियाँ,
सहारे का पर्याय,
या फिर
सचमुच, क्या यह सत्य है
कि जीवन काटा जा सकता है,
काठ की बनी
बैसाखियों के सहारे.

कुछ समय के लिए
वर्तमान में किये गए कृत्य,
बैसाखियों को भी सहारा दे सकते हैं,
यदि कहीं द्रश्तिपात हो
अनुकूलता का
द्रष्टिकोण -
अनुकूल अथवा प्रतिकूल
भूत का अनुभव,
सिद्ध हो सकते हैं,
कुछ सहायक,
साफ़ करने मे,
भविष्य पर लगा प्रश्नचिंह.
परन्तु शायद
प्रतीक्षा ही
जीवन का अर्थ नहीं है...
(२८ मई, १९९३, हर्मंन माइनर स्कूल, भीमताल, नैनीताल, उत्तरप्रदेश, उत्तरांचल)

किनसे लोग खफा रहते हैं

वो जो कुछ कुछ, चुप रहते हैं
या जो अधिक खरा कहते हैं
उनसे लोग खफा रहते हैं.

पानी बरसे, आंधी आये
नेहरु आये, गाँधी आये
निर्भर नहीं किसी पर हो जो
धारा मे अपनी बहते हैं
उनसे लोग खफा रहते हैं.

शोक हुआ बादल मंडराए
कौए, चील, गिद्ध भी गायें
हर ऋतु के आने जाने का
जो सार्थक अध्ययन करते हैं
उनसे लोग खफा रहते हैं.

सोना उठना, उठना सोना
अश्रु बिना जिनका हो रोना
आंसूं का खारापन पीकर
अपना जो जीना जीते हैं
उनसे लोग खफा रहते हैं.

क्या कहना और किसको कहना
क्यों कहना कैसे चुप रहना
शोर मचा हल्ला करते हैं
उनसे लोग खफा रहते हैं.

जीवन का चलना कपि बनकर
नहीं लिए सबके कर, कर पर
अपना जो जपना कहते हैं
उनसे लोग खफा रहते हैं.

देशभक्ति का पाठ पढाकर
द्वेष भक्ति स्वयं अपनाकर
जन गण मन पर चुप रहते हैं
उनसे लोग खफा रहते हैं...

(१८ सितम्बर,  १९९२, ११:२० बजे सुबह, हर्मंन माइनर स्कूल, भीमताल, नैनीताल, उत्तरप्रदेश, उत्तरांचल)

शब्द या अर्थ

शब्द, वही हैं
मात्र अर्थ बदल रहे हैं
या
अर्थ वही हैं
लेकिन शब्द बदल रहे हैं
लेकिन बदल अवश्य रहे हैं
शब्द या अर्थ...
(२६ अगस्त, १९९२, हर्मंन माइनर स्कूल, भीमताल, नैनीताल, उत्तरप्रदेश, उत्तरांचल)

मेरी दाड़ी

उँगलियों का स्पर्श,
मेरे गालों पर,
मेरे बालों पर
मेरी ... ऊबड़-खाबड़ दाड़ी पर,
कल्पना, स्वप्न, अभिलाषा
या उड़ान,
भींचना होठों का,
या फिर
उंगली के नाखूनों का संघर्ष
हाथ की - कभी स्वयं से, कभी दातों से,
गालों को टिकाना,
सम्पूर्ण हथेली पर,
या फिर
हथेलियों का,
उँगलियों को भींचकर
दोनों हाथों की
सर को सहारा देना,
किसी से बात करते
एक टकी लगा कर देखना
कहीं और
कुछ सूचक मात्र हैं
ये किर्याकलाप
कौन, कब, किससे, किसको, क्यों,
कैसे, कहाँ,
दर्शाते हैं
पथ उड़ान का
साकार करने के लिए
कल्पनाएँ
एक सम्पूर्ण सामंजस्य...
(२६ अगस्त १९९२, १० बजे सुबह, हर्मंन माइनर स्कूल, भीमताल, नैनीताल, उत्तरप्रदेश, उत्तरांचल)

दुल्हन ही दहेज़ है

नहीं चाहिए दुल्हन
यदि दुल्हन ही दहेज़ है
पत्नी
अर्थात दुल्हन
संविदा में
दहेज़ का प्रतिफल है
बिना प्रतिफल
कोई भी संविदा
शून्य है
कुछ अपवादों को छोड़कर
अपवाद ही होंगे
दहेज़ रहित विवाह
या
दुल्हन रहित दहेज़
या फिर
दहेज़ रहित दुल्हन...

(24 August 1992, Hermann Gmeiner School, Bhimtal, Nainital, UP, Uttranchal)

जीवन एक चैक है

जीवन एक चैक है
यदि सार्थक हुआ तो
समाशोधित हुआ मना जाता है
और यदि निरस्त तो
बिना भुगतान
बैंक से वापस आ जाता है.
अब तो सरकार भी बल दे रही है
जीवन के सार्थक होने पर
शायद इसीलिए
अपराध की संज्ञा में
जोड़ दिया गया है
बिना भुगतान बैंक से
वापस आ जाना
किसी चैक का
किसी जीवन का...

(२४ अगस्त, १९९२, हर्मन माइनर स्कूल, भीमताल, नैनीताल, उत्तरप्रदेश, उत्तरांचल)
लिखता हूँ मैं
गाती है मेरी लेखनी
संगीत प्रदान करते हैं
कुछ कागज़ के प्रष्ट
कुछ रचने के लिए
अन्तर्भेद
कविता और गीत...

(24 August 1992, 10 AM, Hermann Gmeiner School, Bhimtal, Nainital, UP, Uttranchal)

संघर्ष

ख़ामोशी
मुझे अब घ्रणा हो गई है
इस शब्द से
जीवन पर्यंत
साथ निभाने के पश्चात्
नियंत्रण -
सीमा के साथ मना रहा है
रंगरेलियां
कब तक सहा जा सकता है
अन्याय
करना ही पड़ेगा संघर्ष

और
लांघना होगा सीमा को
और लाना होगा 
नियंत्रण से छीनकर,
ईश्वर - भाग्य - योग्यता,
कब तक बिताएंगे जीवन
इन असहाह शब्दों के सहारे
नहीं, कोई नहीं
प्राप्त कर पायेगा
कुछ भी
भाग्य से अधिक
नहीं, कभी नहीं
किसी को प्राप्त होगा
कुछ भी
समय से पहले,
शब्दकोष
साक्षात्कार कराता है
एक नए शब्द से
संतुष्टि,
सपने - कल्पनाएँ
यदि करनी हैं साकार
तो
भाग्य - समय - संतुष्टि
और ईश्वर
इन सबसे करना ही होगा
समझौता,
क्या यह सत्य नहीं है
कि लगा दी गयी आग
गगनचुम्भी इमारतों
को मनाने वाले
मजदूर की झोपड़ी में,
या फिर
क्या कुछ नहीं कहतीं
पुलिस चौकी में बिखरी पड़ीं,

टूटी चूड़ियाँ,
बताओ
क्या यह सत्य नहीं है
कि बेरोजगार सतीश ने
स्वयं को कर दिया
अग्नि के हवाले
या फिर
क्या यह भी सत्य नहीं है
कि
हरिया को पिलाकर शराब
करवाया गया वो काम
जो आता अपराध की संज्ञा में,
यदि स्वयं किया जाता,
अरे - मौन क्यों हो
मेरे प्रश्नों का उत्तर दो
मालूम है भली-भांति,
जब होगा एकांत,
तो किसी क्षण
एकदम शांत
तुम विचार करोगे.
यह सत्य नहीं है
कि अरबों रूपया खर्च किया गया
गरीबों कि झोपडी बनाने में,
तुम संभवतः
डूबते जाओगे
सागर कि गहराइयों में
और प्रयत्न करोगे
किसी सीपी को ढूँढने का
तुम सोचोगे
यह भी सत्य नहीं है
कि क़ानून उसकी रक्षा करता है
जो रक्षा करते हैं
क़ानून की.

अब करनी ही पड़ेगी
लड़ाई,
शांति से,
ख़ामोशी से,
क्योंकि
संघर्ष जीवन का पर्याय है

(11th February, 1992, 10:30 AM, Hermann Gmeiner School, Bhimtal, Nainital, UP, Uttranchal)

परिणति

शोर बहुत है
घर घर चर्चा है
शायद
कहीं कुछ हो गया है
या फिर
किसी का कुछ खो गया है
तलाश जारी है मगर......

आमने- सामने खडें है
दोनों प्रतिध्वंदी
उनको नहीं मालूम
कहाँ क्या हुआ
किसने किया
क्यों हुआ
कैसे हुआ
किसकी दुआ
किसकी बद्द्दुआ
आखिर ऐसा तो
कुछ नहीं हुआ.

किसी को
फलता-फूलता देखा नहीं जा सकता
यदि जा सकता है देखा
तो फिर कटी निगाह से
जो दिखाई ना दे
कहीं से
प्रायः जैसा होता है.

कौन कहता है कि
कहीं कुछ हुआ है.

प्रयास कर रहे हैं
दूर रहें
समाचार पत्र पर डाले निगाह
और समझें
कहाँ क्या हुआ.
शोर क्यों है
कारण क्या है.

आग हर घर मे
क्यों है
इसकी लपटें
कहीं बर्बाद ना कर दें
मेरा आशियाना
कृपया मात्र इतना बतलाना
अब मुझे किधर चाहिए जाना
पश्चिम या पूरब
दक्षिण या उत्तर
असमंजस
आप रहेंगे निरुत्तर
यदि ना हो सका प्रयास
चुप रहने का
फिर लांघ जायेगा सीमा
उसका 'मैं' दिखायेगा
अपनी औकात
किसी की समझ में नहीं आएगी
कोई बात
क्योंकि देखा यह गया है
कि शोर की
परिणति होती है
शांति से
सन्नाटे से
धीरे...

(२३ नवम्बर, १९९१, १०:३० सुबह, हर्मंन माइनर स्कूल, भीमताल, नैनीताल, उत्तरप्रदेश - उत्तरांचल)

Monday, May 17, 2010

कुआँ और खाई

मित्र ने एक बात बताई,
जो खोदते हैं,
दूसरों के लिए कुआँ,
स्वयं खुद जाती है
उनके लिए खाई.
उसकी यह बात
मेरी समझ मे नहीं आई,
तो मैने की खोज,
तो जाकर एक रोज,
जबकि
दूरबीन समान चश्मा
लगाया था,
तो कुछ-कुछ समझ मे आया था,
राजनीति का अध्ययन
करने के पश्चात,
जहाँ हर आदमी एक दूसरे की
कुर्सी के पीछे पड़ा है,
लेकिन उसे नहीं पता कि
उसके पीछे कौन खड़ा है,
यमदूत,
जो स्वयं उसकी कुर्सी के पीछे पड़ा है.

शायद हमारे देश मे,
प्रत्येक व्यक्ति,
किसी ना किसी की 
कुर्सी के पीछे पड़ा है,
चाहे, वह राजनीति हो
या हो
नीति-राज.
यदि ऐसा नहीं है,
तो वह आदमी नहीं है,
वह है आदम.
वस्तुतः
इसीलिये हम जिंदा हैं
और
शर्मिंदा हैं
यहाँ प्रतियोगिता है, प्रतियोगी हैं
सहायता है, सहयोगी हैं
प्रेम है, वियोगी हैं
डाक्टर है, रोगी हैं
दवाई है, निरोगी हैं
अपराध हैं, भोगी हैं
पूजा है, योगी हैं
ढोंग हैं, ढोंगी हैं,
वैसे
सब के सब जोगी हैं.

स्वयं, स्वस्थ हूँ,
मस्त हूँ,
परन्तु अब पस्त हूँ.
वे सोचते हैं,
मैं किसी की कुर्सी के पीछे पड़ा हूँ,
शायद
इसीलिये वे कहते हैं,
मैं तुम्हारी कुर्सी के पीछे खड़ा हूँ,
इसलिए नहीं
कि यदि कुछ डगमगाओ,
तो सहारा दूं,
या, तुम्हे बता सकूं,
जाता सकूँ,
कि मैं तुम्हारे साथ हूँ,
बल्कि इसलिए
कि जब तुम खडे हो,
मैं तुम्हारी कुर्सी,
नीचे से खींच लूं,
और
खिलखिला सकूं,
तुम्हारे गिरने पर.

मैं जानता हूँ,
सच क्या है और कहाँ है,
मस्तिष्ट,
कहीं खो सा जाता है,
स्मरण कराता है,
कुआँ और खाई,
बात अब मेरी समझ मे आई
भलीप्रकार,
जो खोदते हैं,
दूसरों के लिए कुआँ,
स्वयं खुद जाती है,
उनके लिए खाई.

(५ अक्टूबर १९९१, ३ बजे शाम, हर्मन माइनर स्कूल, भीमताल, नैनीताल, उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड)
श्रीमती ममता भट के आग्रह पर, विषय उनके द्वारा दिया गया...

परिवर्तन 2

परिवर्तन,
कहाँ है,
नहीं जानता,
परन्तु है अवश्य,
किसमे
यह भी नहीं मालूम,
परन्तु है अवश्य,
आखिर इसकी आवश्यकता क्या है.

संतुष्टि किसी को नहीं है,
शायद यही हमारी विवशता है,
फिर भी नैतिकता शब्दकोष मे है,
इसको ढूँढ पाना
कोई कठिन नहीं,
है परन्तु
कुछ के लिए,
जो परिवर्तन को परिवर्तित
करते रहते हैं.

सीमा - इसको मैं नहीं जानता,
संतोष - आँखों से बहुत दूर है,
विश्वास - इतिहास की पुस्तकों मे है,
धैर्य - कभी मित्र था,
म्रदुल - आता जाता था,
शोभा - पता नहीं आजकल कहाँ है,

समय, काल व परिस्थिति,
शब्दों की परिभाषाएं
परिवर्तित हो चुकी हैं,
ना जाने कितनी पीड़ियाँ
समर्पित हों चुकी हैं
बिना अर्चना के,
कभी-कभी मस्तिष्ट
प्रश्नों के प्रकाश में,
कुछ सोचने का प्रयत्न करता है
परन्तु प्रयत्न
मात्र प्रयत्न ही रहेगा
मैं जानता हूँ,
निरर्थक होंगे सारे प्रयास
फिर कहाँ होगा विकास...

(११ अक्टूबर, १९९१, ७:१५ बजे संध्या, हर्मंन माइनर स्कूल, भीमताल, नैनीताल, उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड)

साहस

मुझको मालूम है
तुम्हारी आदत,
मैं जानता हूँ,
या
समझ सकता हूँ,
कब, कहाँ, क्यों, क्या होगा,
कौन करेगा,
परन्तु,
मौन हूँ,
क्यों,

पता नहीं.

मैं कुछ नहीं जानता,
उन्हें इन्तजार नहीं है,
सुबह का,
उन्हें प्यास है,
पानी की नहीं,
किसी और की.

वर्तमान में,
सच यह है,
कि
मैं कुछ नहीं जानता,
मुझे मालूम भी नहीं है
कुछ,
क्योंकि सत्य,
सत्य है,
एक कटु सत्य,
जिसे स्वीकारना
परे है,
स्वयं सत्य से,
सब जानते हैं,
सभी को मालूम भी है,
सत्य क्या है,
परन्तु,
साहस सब मे नहीं है,
है  - परन्तु कुछ में.


सत्य,
पीछे है,
काले शीशे कि उस दीवार के,
जिसमे,
इधर से उधर का,
देखा जा सकता है,
उधर रौशनी होने पर,
इधर रौशनी होने पर,
देखा जा सकता है,
उधर से इधर का.

निष्कर्ष,
सत्य को चाहिए,
अभिव्यक्ति,
और
अभिव्यक्ति को चाहिए,
रौशनी - प्रकाश,
और उस हेतु चाहिए,
साहस
जिसकी तलाश है...

(३१ अगस्त १९९१, १०:३५ सुबह, हर्मन माइनर स्कूल, भीमताल, नैनीताल, उत्तरप्रदेश, उत्तरांचल)

परिवर्तन 1

द्वेष, घ्रणा, छल, कपट, असत्य, फरेब,
आदि, इत्यादि,
शब्दों ने
किया है बसेरा मेरे शहर मे,
भाषा में,
चालढाल में,
रंग-ढंग में,
कारण, पता नहीं,
शायद,
वे अधिक फलते फूलते हैं,
शायद,
उन्हें दर्शन होते हैं
परमपिता परमेश्वर के,
शायद,
वे अधिक सम्रद्धवान होते हैं,
शायद,
उन्हे अधिक आदर मिलता है,
समाज से,
राष्ट्र से,
या फिर
उनकी पूँछ होती है,
उनकी पहुँच होती है,
परन्तु
यह निश्चित है कि
वो चोर हैं,
समान के नहीं,
सम्मान के,
हथियार के नहीं,
सत्कार के,
धन के नहीं,
मन के,
मकान के नहीं,
श्य्म्शान के,
यह ऐसी चोरी है,
जिसकी रपट
थानेदार नहीं लिखता,
इसको
प्रकाशित भी नहीं किया जा सकता,
कुछ लोग इसको
वकवास कहते हैं.
इसकी जांच पड़ताल
नहीं की जा सकती,
जासूसों द्वारा
क्योंकि
वे स्वयं जासूस हैं,
कंफुउस हैं,
मनहूस हैं,
डिफुउस हैं,
रिफुउस हैं,
समाज से, परिवार से,
जहां से,
जहाँ वो शरणार्थी हैं.

इसकी रपट लिखी
जा रही है,
इसकी जांच-पड़ताल
भी चल रही है,
उससे संभंधित कार्य
प्रगति पर है,
उनका भविष्य
अंधकार मे नहीं है,
उनके अनुसार,
वो जानता है
उसका परिणाम,
उसकी पीड़ियाँ
भुगतेंगी,
पश्चाताप,
उनकी पीड़ियाँ करेंगी,
उसको डर नहीं है,
बद्दुआओं का,
पीडाओं का,
पीड़ियों की.

परन्तु मैं सोचता हूँ,
क्यों ना अपना शहर बदल लूं,
या फिर
खत्म कर दूं,
इन सबको.
शायद बेहतर
यही होगा,
क्योंकि
यदि मैने शहर बदला,
तो उस शहर मे केवल
उन्ही की आवादी होगी,
परिवार नियोजन से
मुक्त होंगे
वे परिवार,
घर से शहर,
शहर से प्रदेश,
प्रदेश से देश,
देश से परदेश.

अब इन शब्दों का बसेरा
कहीं नहीं होगा
यदि
हम, आप और सब जागें,
देर है
अंधेर नहीं
परिवर्तन होगा
अवश्य
शब्दों में
प्रेम से
सत्य से......

(३० अगस्त, १९९१, ११:१५ सुबह, हर्मन माइनर स्कूल, भीमताल, नैनीताल, उत्तरप्रदेश - उत्तराखंड)

परिचय

परिचय,
किसका, क्यों, किस हेतु,
किस प्रकार
अर्थात
कैसे
व्यक्ति
स्वयं मे स्वयं
एक परिचय है,
उसका नाम
मात्र
पहचान के लिए है;
यदि खो जाये
तो नाम से
ढूँढा जा सके.
कक्षा में नाम से
पुकारा जा सके
प्रकाशित हों सके
समाचार पत्र में.
पिता का नाम
उसके अस्तित्व
से सम्बंधित है,
महत्त्वपूर्ण भी है.
प्रश्न उठता है,
व्यक्ति को
किस नाम से जाना जाता है,
उसके नाम से
या फिर
उसके पिता के नाम से
वास्तविकता यह है
कि एक दूसरे के पूरक हैं
यह दो
परिचयसूत्र,
क्योंकि
कभी
पुत्र, पिता के नाम से जाना जाता है
कभी
पिता, पुत्र के नाम से.
अभिप्राय
सीमा लांघने से है
कौन, किसकी, किस तरह
और कब
सीमा लांघता है...


(२९ अगस्त १९९१, हर्मन माइनर स्कूल, भीमताल, नैनीताल, उत्तरप्रदेश - उत्तराखंड)

पश्चाताप

मेरी चौखट पर
किसी नामर्द की आहट,
मस्तिष्ट विचारता है,
समस्त भूत की पुस्तकें;
कुछ जानी पहचानी सी प्रतीत होती है,
यह दस्तक;
शायद -
पुनः मेरे स्पर्श की कल्पना
उन्हे हो,
परन्तु, बल्कि...
अब मात्र
निष्प्राण, मानव समान
किसी भाषा के प्रयोग
को दर्शाते हैं;
अरे वो .......?
नहीं हों सकता,
मुझे विश्वास नहीं है,
और
हों भी क्यों;
आखिर..........!
खैर...

परिवर्तन,
वक़्त की,
समय की मांग है,
परन्तु -
पुनः स्वयं के प्रयोग को
बाध्य करता है,
शायद
वो भी बिवश है,
किसी को क्या मालूम
सत्य क्या है...
संभवतः
मै भी नहीं जानता,
शायद वह भी नहीं,
फिर भी
कुछ है अवश्य,
यदि नहीं
तो यह आहट
आखिर
जानी, पहचानी
क्यों लगती है,
यदि सत्य,
वास्तव मे सत्य है,
तो करना ही पड़ेगा
पश्चाताप,
मात्र आहट को नहीं,
स्वयं मुझे भी
संतोष
किसे और क्यों...

(२९ अगस्त १९९१, १०:३५ सुबह, हर्मन माइनर स्कूल, भीमताल, नैनीताल, उत्तरप्रदेश (उत्तराखंड))

Sunday, May 16, 2010

काश! मेरा ह्रदय होता आप सा

काश! मेरा ह्रदय होता आप सा

सांझ मेरी गूंजती अटखेलियों में
रात भी होती नई नववेलियों में
स्वप्न कर देते तभी कुछ चिन्ह अंकित
सुबह को खेलता मैं बहेलियों में
दिन प्रति, प्रति-दिन करूँ परिहास सा
काश! मेरा ह्रदय होता आप सा

जब कभी मेरा करें स्पर्श वो
मैने सोचा, वो नहीं, वो, वो, नहीं वो
याद किस-किस की करूँ मस्तिष्ट में
कोई आता कोई जाता शाम को
मेरा हर इक मोड़ करता हादसा
काश! मेरा ह्रदय होता आप सा

मैने सोचा भाव कुछ बढने लगें हैं
क्या कहूं अब शब्द भी लड़ने लगे हैं
माँ बहन मे अब कोई अंतर नहीं है
देह व्यापारों के पर लगने लगे हैं
हर नया महबूब करता स्वांग सा
काश! मेरा ह्रदय होता आप सा

आपका क्या है कोई मिल जाएगा
पर ना अब कोई मेरे घर आएगा
मेरे माथे पर लगी है मोहर जो
उसको कोई आपसा सहलाएगा
सहन करने का मुझे अभ्यास सा
काश! मेरा ह्रदय होता आप सा

(२ मार्च १९८८, तिलक कालोनी, सुभाष नगर, बरेली, उत्तरप्रदेश)

संयोग

मेरे अश्रु,
गुलाब की पत्ती पर पड़ीं,
ओस की बूँदें,
आपस मे
सामंजस्य दर्शाती हैं,
परन्तु,
ओस समय पर आती है,
एकाग्रता के,
भाव से,
परिचित कराती है,
मेर अश्रु,
वक़्त/बेवक्त,
समय/बेसमय,
कुछ नहीं देखते,
अक्सर आते हैं,
परिचित कराते हैं,
अपनी बिवषता से.
कीचड़ मे खिला कमल,
मेरे लिए,
प्रेरणा बन जाता है,
वह भी अपनी,
बिवषता दिखाता है,
ओस की बूँदें,
सीमायें लांघने का,
प्रयास नहीं करतीं,
मेरे अश्रु,
किसी की,
प्रतीक्षा नहीं करते,
अंतर बताती हैं,
प्रश्न कर जातीं हैं,
द्रश्य को,
संयोग बताती है,
मेरी विचारधारा,
मेरा अनुभव...

(१९ फरबरी १९८८, तिलक कालोनी, सुभाष नगर, बरेली, उत्तरप्रदेश)

Wednesday, May 5, 2010

नाक

नाक कभी उठती है, कभी झुकती है
नाक कभी रूकती है, कभी बहती है
नाक कभी लाल होती है, कभी पीली होती है
नाक कभी सूखती है, कभी गीली होती है.

नाक के नीचे मुहं होता है,
जो अधिकतर चुप, सोता है
नाक के ऊपर दो आंखे होती हैं
जो अक्सर बंद, सोतीं हैं

जिसका मुहं बंद रहता है,
और आँख सोती है
मित्रों ऐसों की नाक
शूर्पनखा की होती है....

Monday, May 3, 2010

मेरा कुछ खो गया है

मेरे यार,
मेरा कुछ खो गया है.
नजाने मेरे ह्रदय को,
आज क्या हो गया है.

मेरे यार
मेरा कुछ खो गया है.

एक डाक्टर,
मुझे बी पी से
पीड़ित बताता है,
दूसरा,
ह्रदय को अमरीका
ले जाता है,
सर्जन,
ऑपरेशन की
सलाह दे जाता है,
मनोवैज्ञानिक,
टेली-पेथी से
परिचित कराता है,
ज्योतिषी,
कंप्यूटर का
स्विच दबाता है,
पुलिस विभाग,
आत्महत्या का
प्रयास बताता है,
पत्रकार,
डिटेल जानने को
विवश हो जाता है,
परन्तु,
कवि,
श्रृंगार रस की
कविता सुनाता है,
अनुभव कराता है,
जिसमे उनकी
तस्वीर रहा करती थी,
मेरे ह्रदय का,
वह पुर्जा,
आज
बंद हो गया है.
मेरे यार
मेरा कुछ खो गया है.
मेरे यार
मेरा कुछ खो गया है...

(१९ फरबरी १९८८, तिलक कालोनी, सुभाष नगर, बरेली, उत्तरप्रदेश)

Friday, April 30, 2010

ख्याति व बाज़ार मूल्य

उसका गुंडाराज
उसकी ख्याति है
मेरी ईमानदारी
मेरी ख्याति है
हर कोई चाहता है
बनना साझेदार उसका
मेरा नहीं
क्योंकि नए साझेदार का हित
अधिक ख्याति मे है.

उसका स्कंध
मेरी तुलना मे
बहुत कम है
क्योंकि उसकी दुकान
अच्छी चलती है
उसकी बिक्री अधिक है
वास्तविकता यह है
कि स्कंध का मूल्याङ्कन
किया जाता है
इस आधार पर
बाज़ार मूल्य व पुस्तक मूल्य
जो भी कम हो
उसका बाज़ार मूल्य अधिक है
जबकि मेरा पुस्तक मूल्य.
उसकी वास्तविकता
निहित है - स्वार्थ में
अर्थात - उसके पुस्तक मूल्य में
जबकि मेरी वास्तविकता
परमार्थ मे -
अर्थात
बाज़ार मूल्य में...

(२४ अगस्त, १९९२, हर्मंन माइनर स्कूल, भीमताल, नैनीताल, उत्तरप्रदेश, उत्तरांचल)

इक्कीसवीं सदी और गांधीबाद

अनुभूति होती है.
इक्कीसवीं सदी के
भारत की.
जब कभी मैं,
सोचता हूँ,
उसका भविष्य,
देखता हूँ,
घरों मे काम करते मजदूर,
होटलों में,
वर्तन धोते बच्चे,
बेघरबार,
मजबूर,
गुन्गुनातें हैं,
'मेरा घर है स्वर्ग से सुंदर'
मेरा ह्रदय,
अवरूध बतलाता है,
उसका मार्ग,
क्योंकि मैं
गांधीबादी विचारधारा
का व्यक्ति हूँ.
---
अनुभूति होती है,
इक्कीसवीं सदी के
भारत की,
जब कभी मैं,
देखता हूँ,
यह लिखा हुआ कि,
'देखो सुअर फूल तोड़ रहा है'
मेरे विचार से,
विज्ञान इतनी
तरक्की कर रहा है,
आज फूल,
कल स्कूल,
मात्र पावं की धूल,
मेरी आंखें,
मेरी विचारधारा,
अवरूध बतलाती है
उसका मार्ग,
क्योंकि मैं,
गांधीबादी विचारधारा
का व्यक्ति हूँ..
---
अनुभूति होती है,
इक्कीसवीं सदी के
भारत की,
जब कभी मैं,
देखता हूँ,
बस चलाता ड्राईवर,
सिगरेट को मुहं लगाये,
धुआं फेंकता है,
'धूम्रपान निषेध' पर
मेरी आंखें,
अवरूध बतलातीं है,
उसका मार्ग,
क्योंकि मैं,
गांधीबादी विचारधारा
का व्यक्ति हूँ.
---
अनुभूति होती है,
इक्कीसवीं सदी के
भारत की,
जब कभी,
कोई बीमा एजेंट,
जीवन को
असुरक्षित बताता है,
अर्थात
जीवन के आगे
प्रश्नचिंह लगाता है,
मेरी विवशता का
लाभ उठाता है,
मेरी विचारधारा,
अवरूध बतलाती है
उसका मार्ग,
क्योंकि मैं
गांधीबादी विचारधारा
का व्यक्ति हूँ.
---
अनुभूति होती है,
इक्कीसवीं सदी के
भारत की,
जब कभी
मैं देखता हूँ,
व्यक्तियों को,
मित्रों को,
मंदिर के सामने,
मत्था टेकते,
घंटा हिलाते,
हाथ जोडते,
मंदिर से गायब मूर्तियाँ,
मेरी विवशता को
सहलाती हैं,
दान-पात्र मे पड़ा दान,
मेरे लिए
प्रेरणा बन जाता है,
क्योंकि मैं
गांधीबादी विचारधारा
का व्यक्ति हूँ.
---
अनुभूति होती है,
इक्कीसवीं सदी के
भारत की,
जब कभी मैं,
देखता हूँ,
उस कुली को
बजन उठाते, खेती करते
बस कंडक्टर से
लडते-झगडते
शाम को,
मधुशाला के द्वार पर,
मधुबाला के नाम पर,
सोंचता हूँ,
उसका भविष्य,
शोध करवाता है,
अपने विषय पर,
मेरा अध्ययन,
मेरा मस्तिष्ट,
मेरा ह्रदय,
गहनता समझने का
प्रयास करता है,
लेखनी,
थक सी जाती है,
'जियो और जीने दो'
दोहराती है,
समस्त विचारों को
एकत्र बतातीं हैं,
प्रश्न कर जातीं हैं,
क्या! क्या!
तुम गांधीवादी हों,
स्वयं को गांधीवादी कहते हों,
शर्ट और पैंट मे,
सूट और टाई मे,
एक चादर मैली सी,
पैरों मे खडाऊं,
क्या! क्या!!
तुम झूठ कहते हों,
मूर्ख हों,
कष्ट सहते हों,
स्वयं को
गांधीवादी कहते हों,
मेरा सटीक सा उत्तर,
मैं गांधीवादी नहीं,
मेरी विचारधारा
गांधीवादी है,
यहाँ
विचारों की आंधी है,
यहाँ
विचारों की आंधी है...

(२३ दिसम्बर १९८८, तिलक कालोनी, सुभाष नगर, बरेली, उत्तर प्रदेश)
हिंदी साहित्य परिषद्, बरेली द्वारा 1988 में पुरुस्कृत रचना

Monday, April 26, 2010

जब कभी मैं अकेला होता हूँ

जब कभी मैं अकेला होता हूँ, 
मेरी लेखनी,
मुझे बिवश करती है,
अपने स्पर्श को,
लेकिन मैं उस घड़ी की
प्रतीक्षा करता हूँ,
जब मैं स्वयं,
उसके स्पर्श को
बिवश होऊं.
बिवषता के अंधकार में,
उजियारे मात्र को
चमकाने के लिए,
लेखनी थामकर बहुत कुछ
सोचता हूँ,
जब कभी मैं अकेला होता हूँ.

कभी गीत, कभी ग़ज़ल,
कभी कविता,
साहित्य,
हर क्षेत्र में विचरण
करने के पश्चात्,
निष्कर्ष निकालने में
स्वयं को असमर्थ पता हूँ,
जब कभी मैं अकेला होता हूँ.

कभी भूत तो कभी भविष्य,
बीते कल को याद करता हूँ,
जब कभी मैं अकेला होता हूँ.

वास्तविकता की पुस्तकें,
अपनी रुआंसी हंसी को,
होठों के चुम्बन के लिए
बाध्य करती हैं,
अपनी बीती हुई गाथा,
दोहराती हैं,
याद करती हैं.
वे जो कमल के पुष्प के समान,
कीचड़ मे भी मुस्करातीं थीं,
अठखेलियाँ किया करती थीं,
शाम को सांझ डलते,
कभी कभी उस द्रश्य को
याद करता हूँ,
जब कभी मैं अकेला होता हूँ.

बीते हुए क्षण
अकेले मे ही याद आते हैं,
अश्रुओं की वर्षा,
तो कभी,
ख़ामोशी के ओले,
अपनी-अपनी कथा,
स्वयं ही सुनाते है.
आशाएं और आकांक्षाएं,
गीले कागज़ पर
लिखे कुछ अक्षर,
जिस प्रकार
फ़ैल से जाते हैं,
इसी प्रकार,
बीते समय की छवि
गीली आँखों से
देखता हूँ,
सोचता हूँ,
तत्पश्चात निष्कर्ष,
रोता हूँ,
जब कभी मैं अकेला होता हूँ.

भविष्य,
अर्थात - आने वाला कल,
मात्र कल्पना के अंधकार मे
फंस जाता है,
जब कभी बीता हुआ कल
याद आता है.
कल्पनाओं को संचित करने के लिए,
स्वयं के मस्तिष्ट को,
स्वयं को,
असमर्थ पाता हूँ,

जब कभी मैं अकेला होता हूँ.

मानवीय शरीर के छिद्रों के समान,
कल्पनाएँ,
अनगिनत हैं,
कुछ छिद्र सरलता से
दृष्टिगत होते हैं,
ठीक उसी प्रकार
कुछ कल्पनाएँ,
महत्ता/आवश्यकता दर्शाती हैं,
वाकी सब वकवास नज़र आती हैं,
फिर भी वकवास पर अधिक
ध्यानाकर्षित करता हूँ,
जब कभी मैं अकेला होता हूँ.

कलम की स्याही,
स्वतः ही,
कुछ हल्की सी होती जाती है,
आखिर वह भी
अपनी व्यथा दर्शाती है,
बिना आंसुओं का रोना रोती है,
विना निद्रा के
सो सी जाती है,
बिना दर्द के कराहती है,
अंततः
स्वयं को कुछ उभारने मे
असमर्थ पाती है,
उसके इस विचित्र रूप को
समझने का
प्रयत्न करता हूँ,
जब कभी मैं अकेला होता हूँ...

(७ जुलाई १९८६ - तिलक कालोनी, सुभाष नगर, बरेली, उत्तर प्रदेश)

Friday, April 16, 2010

मेरा नेहू

मेरा नेहू, संस्थान महान है

जब जब सूरज उगता है
जब जब चाँद निकलता है 
जैसे जैसे, किरण बड़े
दिन के तेवर और चड़े
कल-कल, थल-थल, बूँद गिरें 
नदी, झील, तालाब भरें 
ऋतुओं का परिवर्तन, एक मेहमान है 
मेरा नेहू, संस्थान महान है
















बंद रखो मुंह, आंखें खोलो
कर्ण-प्रिय भाषा ही बोलो 
आपस मे दीवारें कम हों 
हाथ मिलाकर दिल को टटोलो.
जैसा हों बस, हों जाने दो 
लेकिन दिल मत खो जाने दो 
रिश्तो में इतनी दूरी क्यों 
हल कर लूं इस एक प्रश्न को 
जीवन का बस एक यही अरमान है 
मेरा नेहू, संस्थान महान है.

भिन्न-भिन्न पौधों को सींचें 
भिन्न संस्कृतियों को भींचे
हर कोने का प्रतिनिधित्व है 
हर इक का अपना अस्तित्व है.
देश का कोना-कोना बोले 
समतल बोले, हिमतल बोले 
फिर भी भेदभाव क्यों इनमें 
मुझको तो लगता है जैसे 
मेरा नेहू, इक लघु हिंदुस्तान है 
सबका नेहू, संस्थान महान है.

पूरब से पश्चिम को देखा 
उत्तर-दक्खिन खींची रेखा 
सीमाओं से परे हटाकर 
मानवता का दर्पण देखा.
प्यार दिखाकर बैर भी देखा 
हंसकर देखा, रोकर देखा 
सबकी आँख, भिगोकर देखा 
बिन टांगों का जोकर देखा 
मिटकर देखा, मिटते देखा 
वाक् युद्ध मे, पिटते देखा 
जुड़ते देखे, कुड़ते देखे 
सही मोड़ पर  मुडते देखे 
ऐसा देखा, वैसा देखा 
बिन मूल्यों का पैसा देखा 
छोटे देखे, मोटे देखे 
बिन पैंदे के, लोटे देखे 
लम्बे देखे, पतले देखे 
कुछ सिक्कों पर मचले देखे 
रोते देखा, हंसते देखा 
जंजालों में, फंसते देखा
खाते देखे, पीते देखे
मर-मर कर भी  जीते देखे
झूठे देखे, सच्चे देखे 
सबसे प्यारे, बच्चे देखे 
बच्चे रोशन करें नाम को 
मेरा एक छोटा सा यह अरमान है 
उनका नेहू , संस्थान महान है .

नेहू का , नेहुटा देखा 
बिन फादर का बेटा देखा 
इन्टरनेट का एक्शन देखा 
नेहुटा का इलेक्शन देखा. 
क्लास पदाते, टीचर देखे 
उनके अच्छे, फ्यूचर देखे 
कभी नहीं हड़तालें देखीं 
नहीं चडाते मालें देखीं.
बिल्डिंग देखी, सड़के देखीं 
बिना बात पर, भड़कें देखीं.
इसका देखा, उसका देखा
नेहू ब्रांड का चस्का देखा.
लडते और लड़ाते देखे 
पड़ते और पदाते देखे 
करते और छिपाते देखे 
लिखते और छपाते देखे.
मेरा अनुभव सारा सपना
इसका-उसका, मेरा अपना.
मिलकर रहना, खिलकर रहना
काम करें तो पिलकर रहना.
जीता देखा, हारा देखा
बिन गिनती का पहाड़ा देखा 
सब कुछ देखा, कुछ ना देखा 
आँख खोलकर सपना देखूं 
ऐसी क्या श्रोत्रिय की झूठी शान है 
मेरा नेहू , संस्थान महान है ,
उनका नेहू, संस्थान महान है,
सबका नेहू, संस्थान महान है ….

(18th July 2009, House no L 57, nehu campus, Shillong: Meghalaya)
Tomorrow is nehu foundation day and I have been asked to recite a poem, so this composition took birth…. Thanx to all those events, individuals and objects which have inspired me to compose this.

Wednesday, April 14, 2010

मेरी उड़ान

तुमने, क्यों दिए मुझे पंख?
उड़ने के लिए ! सचमुच.

उड़ने का साहस, जब कभी मैने किया,
धरती ने खींचा है मुझे,
अपनी ओर.

पंख प्रदानकर,
मुझे ज़मीन मे गिरा दिया,
मैने देखा है
मेरी स्वतंत्रता पर लगा प्रश्नचिन्ह,
इन पंखों के कारण.

काश - मेरे पंख न होते.
न होता, कदापि, दिशाओं का युद्ध,
एक दिशा, एक मंतव्य, एक उद्वेश्य,
यह 'एक' ही प्रदान करता,
संतुष्टि, सौहार्द्, व प्रतिष्ठा.

पंख विहीन हूँ मैं, पंख होते हुए भी,
क्योंकि कोई 'एक' दिशा नहीं है.
यदि पंख दिए तो दिशा भी देता.

तू सोचता है, तुने बहुत कुछ दिया,
दिया - हाँ अवश्य दिया -
बहुत कुछ -
बलिदान -
आर्थिक, मौद्रिक व अमौद्रिक,
सामाजिक व शारीरिक,
मेरे पंखों के लिए.

मुझे पंख दिए (दिशाविहीन) ,
ओर छोड़ दिया,
झाड़ियों के जंगल में,
उड़ने के लिए.

जब जब मैने उड़ने का प्रयास किया,
धरती ने खींचा है, मुझे, अपनी ओर,
झाड़ियों से युद्ध करने मे,
रिसा लहू,
क्योंकि कोई 'एक' दिशा न थी.

तुमने एहसान किया,
मुझे पंख देकर.

काश!
तुम समझ सकते,
मेरे पंखों से रिसते लहू की पीड़ा.

तुमको इसकी अनुभूति मात्र मुझे पंख देने का परिणाम है...

6th Feb 1996, 10 PM, Qr No 29, Kanglung: Bhutan

मेरे सपने

मेरे सपने अपने थे, जब हम केवल अपने थे
आज मुझे मालूम हो गया, सपने कितने अपने थे

कितने भी दुःख, कष्ट, सजाएँ, हंस के सब कुछ सह लेंगें हम
जीवन की हर धुंध ओड़कर, अन्धकार मे रह लेंगें हम
नहीं झुकेंगे कभी कहीं हम, ऐसे देखे सपने थे
सपने केवल अपने थे, जब हम केवल अपने थे

हर मुश्किल अच्छी लगती थी, जैसे कोई नया सवेरा
नई किरण की नई रौशनी, नया नया सपना था मेरा
नहीं कभी समझौता खुद से, ऐसे देखे सपने थे
सपने कितने अपने थे, जब हम केवल अपने थे

कोई शूल चुभा जैसे हो, आशाओं का धुंधला पड़ना
कब तक पतझड़ को देखे हम, ऋतुओं से कब तक हो लड़ना
रिश्तो मे इतनी दूरी क्यों, क्यों ये सपने अपने थे
सपने कितने अपने थे, जब हम केवल अपने थे

मेरे सपने अपने थे, सपने कितने अपने थे.

२८ जुलाई १९९९: ५:३० संध्या : कान्ग्लुंग : भूटान